रविवार, 31 अक्टूबर 2021

राजा शिवि की कहानी

 

शीनर पुत्र महाराजा शिवि बड़े ही दयालु और शरणागतवत्सल थे। एक बार राजा एक महान यज्ञ कर रहे थे। इतने में एक कबूतर आता है और राजा की गोद में छिप जाता है। पीछे से एक विशाल बाज वहाँ आता है और राजा से कहता है –

राजन् मैने तो सुना था आप बड़े ही धर्मनिष्ठ राजा हैं फिर आज धर्म विरुद्ध आचरण क्य़ो कर रहे हैं। यह कबूतर मेरा आहार है और आप मुझसे मेरा आहार छीन रहे हैं।

इतने में कबूतर राजा से कहता है –

महाराज मैं इस बाज से डरकर आप की शरण में आया हूँ। मेरे प्राणो की रक्षा कीजिए महाराज।

राजा धर्म संकट में पड़ जाते हैं। पर राजा अपनी बुद्धि और विवेक का प्रयोग करके कहते हैं –

राजा – तुमसे डर कर यह कबूतर प्राण रक्षा के लिए मेरी शरण में आया हैं। इसलिए शरण में आये हुए इस कबूतर का मैं त्याग नहीं कर सकता। क्य़ोकि जो लोग शरणागत की रक्षा नहीं करते उनका कहीं भी कल्य़ाण नहीं होता।

बाज – राजन् प्रत्येक प्राणी भूख से व्याकुल होते हैं। मैं भी इस समय भूख से व्याकुल हूँ। यदि मुझे इस समय य़ह कबूतर नहीं मिला तो मेरे प्राण चले जायेंगे। मेरे प्राण जाने पर मेरे बाल-बच्चो के भी प्राण चले जाय़ेंगे। हे राजन्! इस तरह एक जीव के प्राण बचाने की जगह कई जीव के प्राण चले जाय़ेंगे।

राजा – शरण में आये इस कबूतर को तो मैं तुम्हें नहीं दे सकता। किसी और तरह तुम्हारी भूख शान्त हो सकती हो तो बताओ। मैं अपना पूरा राज्य़ तुम्हें दे सकता हूँ, पूरे राज्य़ का आहार तुम्हें दे सकता हूँ, अपना सब कुछ तुम्हें दे सकता हूँ पर य़ह कबूतर तुम्हें नही दे सकता।

बाज – हे राजन् । यदि आपका इस कबूतर पर इतना ही प्रेम है, तो इस कबूतर के ठीक बराबर का तौलकर आप अपना मांस मुझे दे दीजिए मैं अधिक नही चाहता।

राजा – तुमने बड़ी कृपा की। तुम जितना चाहो उतना मांस मैं देने को तैयार हूँ। यदि यह शरीर प्राणियों के उपकार के काम न आये तो प्रतिदिन इसका पालन पोषण करना बेकार है। हे बाज मैं तुम्हारे कथनानुसार ही करता हूँ।

यह कहकर राजा ने एक तराजू मंगवाया और उसके एक पलडे में उस कबूतर को बैठाकर दूसरे में अपना मांस काट-काट कर रखने लगे और उस कबूतर के साथ तौलने लगे। कबूतर की रक्षा हो और बाज के भी प्राण बचें, दोनो का ही दुख निवारण हो इसलिए महाराज शिवि अपने हाथ से अपना मांस काट-काट के तराजू में रखने लगे।

तराजू में कबूतर का वजन मांस से बढता ही गया, राजा ने शरीर भर का मांस काट के रख दिया परन्तु ककबूतर का पलडा नीचे ही रहा। तब राजा स्वयं तराजू पर चढ गये।

जैसे ही राजा तराजू पर चढे वैसे ही कबूतर और बाज दोनो ही अन्तर्धान हो गये और उनकी जगह इन्द्र और अग्नि देवता प्रगट हुए।

इन्द्र ने कहा- राजन् तुम्हारा कल्याण हो। और यह जो कबूतर बना था यह अग्नि है। हम लोग तुम्हारी परीक्षा लेने आये थे। तुमने जैसा दुस्कर कार्य किया है, वैसा आज तक किसी ने नहीं किया। जो मनुष्य अपने प्राणो को त्याग कर भी दूसरे के प्राणो की रक्षा करता है, वह परम धाम को प्राप्त करता है।

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अपना पेट भरने के लिए तो पशु भी जीते हैं, पर प्रशंसा के योग्य जीवन तो उन लोगो का है जो दूसरों के लिए जीते हैं।

इन्द्र ने राजा को वरदान देते हुए कहा- तुम चिर काल तक दिव्य रूप धारण करके पृथ्वी का पालन कर अन्त में भगवान् के ब्रह्मलोक में जाओगे। इतना कहकर वे दोनो अन्तर्धान हो गये।

दोस्तों, भारत वह भूमि है जहाँ राजा शिवि और दधीचि जैसे लोग अवतरित हुए हैं, जिन्होंने परोपकार के लिए अपना जिन्दा शरीर दान दे दिया। और एक हम लोग हैं जिन्दा की तो बात छोड़िए मरने के बाद भी अंग दान नहीं करते।

दोस्तो मरने के बाद यह शरीर कूड़ा हो जाता है, उसमें से बदबू उठने लगती है, घर और परिवारी जन जल्द से जल्द उसे घर से बाहर ले जाते हैं। अगर वह शरीर काम का होता तो वह उसको जलाते या गाडते क्यों?

पर आपके लिए जो काम का नहीं है, वह किसी को जीवन दे सकता है। किसी को रोशनी दे सकता हैं। और मेडिकल साइंस को एक नई दिशा दे सकता है। और ऐसा तब हो सकता है जब आप इस मृत शरीर को दान करें। इसलिए दोस्तो अब समय आ गया है अंतेष्टि क्रिया को बदलने का और अंगदान कर परोपकार के भागीदार बनने का। कृपया इस बात पर विचार करें और अपना निर्णय लें।

 

 

शनिवार, 30 अक्टूबर 2021

कुछ पाना है तो बस इतना करो!

मधुसूदन जी दो दिनों से सो नहीं पा रहे थे। वजह? जब भी सोने जाते, कुछ पुरानी बातें याद आ जातीं। अयोध्या की बातें!

वह एक गरीब परिवार से थे। बीस साल पहले घरवालों ने अयोध्या भेजा था। पढ़ने के लिए। साकेत महाविद्यालय में उन्हें प्रवेश मिल गया। वहीं एक आश्रम में रहने और खाने की व्यवस्था हो गयी ।

अयोध्या में अनेक ऐसे मठ और आश्रम हैं, जहां रहकर गरीब छात्र पढ़ते हैं। आश्रम के कार्यों में हाथ बटाते हैं। मधुसूदन बड़े परिश्रमी और मिलनसार थे। जल्दी ही सबसे घुल मिल गए।

आश्रम के प्रमुख एक स्वामी जी थे। संस्कृत के बड़े विद्वान। शिक्षा के अनुरागी। प्रेरक व्यक्तित्व।ओजस्वी वाणी। उम्र पचपन साल। लेकिन चुस्ती और उत्साह में युवाओं जैसे। विद्यार्थियों की शिक्षा उन्हें सबसे प्रिय थी।

मधुसूदन जल्दी ही स्वामी जी के प्रिय छात्र हो गए। दिन में खूब जमकर कॉलेज की पढ़ाई करते। शाम को स्वामी जी के साथ सरयू स्नान फिर हनुमानगढ़ी जाकर हनुमानजी का दर्शन करते! फिर पास में ही स्थित कनक भवन से प्रसाद लेकर वापस आश्रम आते! इस दौरान ज्ञान विज्ञान की बातें चलती रहतीं। हालांकि मधुसूदन की धर्म में कोई खास रुचि नहीं थी, लेकिन स्वामी जी का व्यक्तित्व और ज्ञान की बातों से वह प्रभावित थे।

स्वामी जी एक बात बराबर कहते-

“जेहिं के जेहि पर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलहिं न कछु संदेहु”

“मतलब?”

“ये रामचरित मानस की चौपाई है। इसके अनुसार अगर कोई सच्चे मन से किसी चीज़ को चाहे, तो वो उसे मिल जाती है”

“वो कैसे?”

“आकर्षण के सिद्धांत से”

“मैं समझा नहीं”

देखो। जब भी तुम सच्चे दिल से कुछ चाहते हो तो क्या होता है! तुम उसके विचारों में डूब जाते हो। रात-दिन, सुबह-शाम बस वही सोचते हो! विचारों के अनुसार ही तुम्हारे कर्म होने लगते हैं। जैसे ही विचार और कर्म एकरूप हो जाते हैं, व्यक्ति उस वस्तु या परिस्थिति के योग्य बन जाता है। योग्यता आ जाने के बाद वह चीज़ उसे मिलकर ही रहती है !

“इस सिद्धांत से लाभ उठाने का क्या कोई सरल तरीका भी है?”

“हां। ईश्वर के प्रति नियमित और सच्चे दिल से प्रार्थना करके हम आकर्षण के इस सिद्धांत को अपने जीवन में क्रियाशील कर सकते हैं””प्रार्थना करने से क्या होगा?”

“मन की बिखरी शक्ति एक लक्ष्य पर केंद्रित होगी। मानसिक ऊर्जा बढेग़ी। बढ़ी हुई मानसिक शक्ति से कर्मों में दृढ़ता आएगी।यह दृढ़ता लक्ष्य की ओर ले जाएगी”

“क्या सोचने से ही सब हो जाएगा?”

“नहीं। जबतक लक्ष्य प्राप्ति के लिए ईश्वर से सच्ची प्रार्थना नहीं होती, तबतक नहीं। यह ताला जानबूझकर प्रकृति के द्वारा लगाया गया है जिससे मानसिक शक्ति के द्वारा लोग अपनी गलत इच्छाओं को न पूरा कर सकें”

इस तरह के तर्क- वितर्क चलते ही रहते थे। मधुसूदन को यह सिद्धांत कोरी कल्पना लगता था। वहीं स्वामी जी का प्रबल विश्वास था कि अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए हमें ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। अगर वो इच्छा हितकारी है तो ईश्वर उसे पूरा करेंगे क्योंकि उनका भंडार अक्षय और अनंत है। जब भी आश्रम में कोई बीमार पड़ता, स्वामी जी सामूहिक प्रार्थना जरूर करवाते।

समय गुजरता गया। मधुसूदन जी की शिक्षा पूरी हो गयी। एक अच्छे सरकारी पद पर लखनऊ में नियुक्ति हो गयी। वह नई परिस्थितियों में रम गए।

बीस- बाइस साल पंख लगाकर उड़ गए। आश्रम से नाता पूरी तरह टूट चुका था। लेकिन दो दिनों से एक अनूठी बात हो रही थी! जब भी बिस्तर पर लेटते, स्वामी जी की याद आती!

उन्होंने आश्रम के एक ट्रस्टी का नंबर लिया। बात की। पता चला कि स्वामी जी को कानों से बहुत कम सुनाई देता है।

मधुसूदन के मन में इच्छा जगी। स्वामी जी को कान की मशीन (Hearing Aid) देनी चाहिए। उन्होंने अपने पड़ोस में ही रहने वाले एक विशेषज्ञ चिकित्सक से बात की। उनके बताए पते पर एक ऑडियोलॉजिस्ट से जाकर  मिले। कान की मशीन खरीद ली। उसे चलाने और फिट करने का तरीका समझ लिया।

रात को घर लौटकर उन्होंने एक फैसला किया। कल अयोध्या जाऊंगा।

अगले दिन खूब सवेरे उठे। सुबह आठ बजे वे आश्रम पहुंच चुके थे।उस समय विद्यार्थी सुबह का जलपान कर रहे थे।

एक छात्र से बातचीत शुरू हुई।

“बूढ़े स्वामीजी कैसे हैं?”

“ठीक हैं, लेकिन अब कानों से सुनाई नहीं देता”

“इलाज हुआ कि नहीं”

“डॉक्टर देखने आया था। कान की मशीन बोला है”

“मशीन तो लग गयी होगी अब?”

“कैसे लगेगी! अयोध्या या फैज़ाबाद में वैसी कान की इलेक्ट्रॉनिक मशीन मिली नहीं।लखनऊ में ही मिलती है”

“लखनऊ से मंगाया नहीं?”

“स्वामी जी कहते हैं, आश्रम का धन विद्यार्थियों के लिए है। अगर वास्तव में उन्हें इस मशीन की जरूरत होगी तो ईश्वर इसे खुद लखनऊ से भेज देंगे”

“अच्छा!!!!”

“हाँ। हम आश्रमवासी पिछले तीन दिनों से हर शाम को सामूहिक प्रार्थना कर रहें हैं कि ईश्वर स्वामी जी की समस्या का निदान करें”

मधुसूदन जी के पूरे शरीर में जैसे कंपन हो रहा था। वह उस विद्यार्थी के साथ स्वामी जी के कमरे में गए। वे बहुत वृद्ध हो चुके थे। स्मृति भी कम हो चुकी थी। मुश्किल से मधुसूदन को पहचान पाए। बगल की मेज पर ही डॉक्टर का पुर्जा पड़ा था।उसपर ठीक उसी पावर और ब्रांड की हियरिंग एड का नाम लिखा था जो वे लखनऊ से लेकर आये थे!

मधुसूदन जी अपने आंसू नहीं रोक सके। तो क्या वह ईश्वर से की गई प्रार्थना के उत्तर में अयोध्या आये थे! प्रार्थना की शक्ति कितनी असीम होती है, उन्हें आज इसका अहसास हो रहा था!

उनके मन में अप्रत्याशित तौर से हियरिंग एड देने की इच्छा जगी! उन्हें एक विशिष्ट ब्रांड और पावर का महंगा हियरिंग एड ही पसंद आया! वे अयोध्या आये! ये सबकुछ उस प्रार्थना की शक्ति से हुआ, जो हर मनुष्य के हृदय में विद्यमान है! आज उन्हें इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मिल गया।

मधुसूदन ने स्वामी जी के कान में मशीन लगाई। अच्छी तरह सब कुछ सेट किया। साथ वाले विद्यार्थी को भी समझा दिया। अब स्वामी जी आराम से सुन सकते थे।

थोड़ी देर वार्तालाप के बाद चलने की आज्ञा मांगी। स्वामीजी ने उन्हें हनुमानगढ़ी के प्रसिद्ध लड्डुओं का प्रसाद पूरे परिवार के लिए दिया। स्वामीजी को प्रणाम करके जब वे आश्रम से चले तो उनका हृदय अब पूरी तरह शांत था।

 

 

शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2021

पेड़ का इनकार!

 

एक बड़ी सी नदी के किनारे कुछ पेड़ थे जिसकी टहनियां नदी के धारा के ऊपर तक भी फैली हुई थीं।

एक दिन एक चिड़ियों का परिवार अपने लिए घोसले की तलाश में भटकते हुए उस नदी के किनारे पहुंच गया।

चिड़ियों ने एक अच्छा सा पेड़ देखा और उससे पूछा, “हम सब काफी समय से अपने लिए एक नया मजबूत घर बनाने के लिए वृक्ष तलाश रहे हैं, आपको देखकर हमें बड़ी प्रसन्नता हुई, आपकी मजबूत शाखाओं पर हम एक अच्छा सा घोंसला बनाना चाहते हैं ताकि बरसात शुरू होने से पहले हम खुद को सुरक्षित रख सकें। क्या आप हमें इसकी अनुमति देंगे?”

पेड़ ने उनकी बातों को सुनकर साफ इनकार कर दिया और बोला-

मैं तुम्हे इसकी अनुमति नहीं दे सकता…जाओ कहीं और अपनी तलाश पूरी करो।

चिड़ियों को पेड़ का इनकार बहुत बुरा लगा, वे उसे भला-बुरा कह कर सामने ही एक दूसरे पेड़ के पास चली गयीं।

उस पेड़ से भी उन्होंने घोंसला बनाने की अनुमति मांगी।

इस बार पेड़ आसानी से तैयार हो गया और उन्हें ख़ुशी-ख़ुशी वहां रहने की अनुमति दे दी।

चिड़ियों ने उस पेड़ की खूब प्रशंसा की और अपना घोंसला बना कर वहां रहने लगीं।

समय बीता… बरसात का मौसम शुरू हो गया। इस बार की बारिश भयानक थी…नदियों में बाढ़ आ गयी…नदी अपने तेज प्रवाह से मिटटी काटते-काटते और चौड़ी हो गयी…और एक दिन तो ईतनी बारिश हुई कि नदी में बाढ़ सा आ गयी तमाम पेड़-पौधे अपनी जड़ों से उखड़ कर नदी में बहने लगे।

और इन पेड़ों में वह पहला वाला पेड़ भी शामिल था जिसने उस चिड़ियों को अपनी शाखा पर घोंसला बनाने की अनुमति नही दी थी।

उसे जड़ों सहित उखड़कर नदी में बहता देख चिड़ियों कर परिवार खुश हो गया, मानो कुदरत ने पेड़ से उनका बदला ले लिया हो।

चिड़ियों ने पेड़ की तरफ उपेक्षा भरी नज़रों से देखा और कहा, “एक समय जब हम तुम्हारे पास अपने लिए मदद मांगने आये थे तो तुमने  साफ इनकार कर दिया था, अब देखो तुम्हारे इसी स्वभाव के कारण तुम्हारी यह दशा हो गई है।”

इसपर इस पेड़ ने मुस्कुराते हुए उन चिड़िया से कहा-

मैं जानता था कि मेरी उम्र हो चली है और इस बरसात के मौसम में मेरी कमजोर पड़ चुकी जडें टिक नहीं पाएंगी… और मात्र यही कारण था कि मैंने तुम्हें इनकार कर दिया था क्योंकि मैं नहीं चाहता कि मेरी वजह से तुम्हारे ऊपर विपत्ति आये।

फिर भी तुम्हारा दिल दुखाने के लिए मुझे क्षमा करना… और ऐसा कहते-कहते पेड़ पानी में बह गया।  

चिड़ियाँ अब अपने व्यवहार पर पछताने के अलावा कुछ नही कर सकती थीं।

दोस्तों, अक्सर हम दूसरों के रूखे व्यवहार या ‘ना’ का बुरा मान जाते हैं, लेकिन कई बार इसी तरह के व्यवहार में हमारा हित छुपा होता है। खासतौर पे जब बड़े-बुजुर्ग या माता-पिता बच्चों की कोई बात नहीं मानते तो बच्चे उन्हें अपना दुश्मन समझ बैठते हैं जबकि सच्चाई ये होती है कि वे हमेशा अपने बच्चों की भलाई के बारे में ही सोचते हैं।

इसलिए, यदि आपको भी कहीं से कोई ‘इनकार’ मिले तो उसका बुरा ना माने क्या पता उन चिड़ियों की तरह एक ‘ना’ आपके जीवन से भी विपत्तियों को दूर कर दे!

क्या है HANDSOME होने का सही मतलब?

दूरदराज के एक गाँव में एक किसान रहता था. उसने सुना था कि उसके देश के प्रेसिडेंट बड़े महान इंसान हैं. उसने मन ही मन उनकी एक तस्वीर बना रखी थी… एक लम्बा, खूबसूरत इंसान, राजसी ठाट-बाट वाला, जो चले तो लोग देखते रह जाएं, जो बोले तो लोग सुनते रह जाएं.

उसके मन में प्रेसिडेंट को देखने की तीव्र इच्छा थी, पर बेचारा ऐसी जगह रहता था जहाँ अभी तक बिजली भी नहीं पहुँच पायी थी… उसने कभी टीवी या अखबार में भी प्रेसिडेंट को नहीं देखा था.

लेकिन यदि मन किसी चीज को पूरी ताकत से चाह ले तो वो चीज होना तय है. एक दिन पता चला कि उसके गाँव से करीब 100 मील दूर खुद प्रेसिडेंट आने वाले हैं. उसने फ़ौरन वहां जाने का निश्चय कर लिया… काफी दूर पैदल चलने और कई साधनों को बदलने के बाद आखिरकार वह तय दिन और समय पर प्रेसिडेंट को देखने के लिए पहुँच गया.

भीड़ बहुत थी. हज़ारों लोग अपने प्रिय प्रेसिडेंट की एक झलक पाने के लिए खड़े थे. किसान ने बगल में खड़े एक व्यक्ति से पूछा-

“क्या आपने कभी प्रेसिडेंट को देखा है?”

“हाँ देखा है.” जवाब आया.

“वो दिखने में कैसे हैं?”

“कुछ ख़ास नहीं, बड़े साधारण से हैं.”

वे बात कर ही रहे थे कि जनता का शोर उनके कानो में पड़ा….प्रेसिडेंट उनके बीच से होते हुए स्टेज पर जा रहे थे.

किसान ने देखा कि एक सामन्य कद का साधारण सा इंसान रेड कारपेट पे चलता हुआ आगे बढ़ रहा है. प्रेसिडेंट उसकी मानसिक तस्वीर से बिलकुल अलग थे.

किसान अपने विचारों में खोया हुआ था कि तभी प्रेसिडेंट उसके सामने रुके उससे हाथ मिलाया, हाल-चाल लिया और आगे बढ़ गए. उसे यकीन नहीं हुआ कि देश का राष्ट्रपति उससे दो शब्द बोल कर गया है…उसने फ़ौरन सोचा–

कौन कहता है मेरा राष्ट्रपति साधारण है…मैंने तो आज तक इससे असाधारण व्यक्ति नहीं देखा!

दोस्तों, वो शख्श कोई और नहीं भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे अब्दुल कलाम थे. इंसान अपने बाहरी रंग-रूप से महान या असाधारण नहीं होता, वो अपने अंदर की अच्छाई, काबिलियत , करुणा और प्रेम से असाधारण बनता है.

डॉ. कलाम ने एक बार भाषण देते हुए कहा भी था-

I am not handsome, but I can give my Hand To Some.

यानी मैं हैण्डसम नहीं हूँ लेकिन मैं कसी को अपना हाथ मदद के लिए दे सकता हूँ.

सचमुच Dr. A.P.J Abdul Kalam एक महान व्यक्ति थे जो सदैव दूसरों की मदद के लिए तैयार रहते थे. चलिए उनके जीवन से सीख लेते हुए हम भी सही मायने में HANDSOME बने, हम भी अपना हाथ कसी की मदद के लिए बढाने के लिए तैयार रहें.

 

बाज का शिकार

 

बाज के बच्चे ने अभी-अभी उड़ना सीखा था… उत्साह से भरा होने के कारण वह हर किसी को अपनी कलाबाजियां दिखाने में लगा था.

तभी उसने पेड़ के नीचे एक सूअर के बच्चे को भागते देखा, ” माँ वो देखो सूअर, कितना स्वादिष्ट होगा ना, मैं अभी उसका शिकार करता हूँ.”

“नहीं बेटा,” माँ बोलीं, “अभी तुम इसके लिए तैयार नहीं हो, सूअर एक बड़ा शिकार है , तुम चूहे से शुरुआत करो.”

 बाज आज्ञाकारी था, उसने फ़ौरन माँ की बात मान ली और जल्दी ही उसने बड़ी कुशलता के साथ चूहों का शिकार करना सीख लिया.

अब उसका आत्मविश्वास बहुत बढ़ चुका था, वह अपनी माँ के पास गया और फिर से सूअर का शिकार करने के लिए कहने लगा.

“अभी नहीं बेटा, पहले तुम खरगोश का शिकार करना सीखो”, माँ ने समझाया.

कुछ ही दिनों में बाज ने खरगोशों का शिकार करना भी सीख लिया. उसे पूरा यकीन था कि अब वो अपने पहले लक्ष्य सूअर को ज़रूर मार सकता है…और इसी की आज्ञा लेने वह माँ के पास पहुंचा.

पर इस बार भी माँ ने उसे मना कर दिया और पहले मेमने का शिकार करने को कहा. बाज जल्दी ही मेमनों का शिकार करने में पारंगत हो गया.

फिर एक दिन वह अपनी माँ के साथ यूँही डाल पर बैठा था कि एक सूअर का बच्चा उधर से गुजरा… बाज ने अपनी माँ की ओर देखा…माँ मुस्कुराई और सूअर पर झपट पड़ने का इशारा किया.

 बाज ने फ़ौरन नीचे की ओर उड़ान भरी और उस दिन उसने पहली बार अपना मनपसंद खाना खाया.

दोस्तों, सोचिये अगर माँ ने पहली बार में ही उसे सूअर का शिकार करने को कह दिया होता तो क्या होता?

नन्हा बाज निश्चित तौर पर असफल हो जाता…और संभव है उसका आत्मविश्वास कमजोर हो जाता. लेकिन जब उसने पहले छोटे-छोटे शिकार किये तो उसका आत्मविश्वास और उसकी काबिलियत दोनों निखरती गयीं. और अंततः वह अपने मनपसन्द लक्ष्य को पाने में सफल हुआ.

बाज की ये कहानी हमें अपने बड़े लक्ष्य को छोटे-छोटे आसान हिस्सों में बाँट कर उसे पाने की सीख देती है. इसलिए बड़ा लक्ष्य बनाइये, ज़रूर बनाइये लेकिन उसे पाने के लिए अपने अन्दर धैर्य रखिये, अपने गुरु की बात मानिए और योजनाबद्ध तरीके से उसे छोटे हिस्सों में बांटकर अंततः अपने उस बड़े लक्ष्य को हासिल करिए.

 

 

आम की गुठलियाँ

 

अरविन्द के अन्दर धैर्य बिलकुल भी नहीं था. वह एक काम शुरू करता…कुछ दिन उसे करता और फिर उसे बंद कर दूसरा काम शुरू कर देता. इसी तरह कई साल बीत चुके थे और वह अभी तक किसी बिजनेस में सेटल नहीं हो पाया था. 

अरविन्द की इस आदत से उसके माता-पिता बहुत परेशान थे. वे जब भी उससे कोई काम छोड़ने की वजह पूछते तो वह कोई न कोई कारण बता खुद को सही साबित करने की कोशिश करता. 

अब अरविन्द के सुधरने की कोई उम्मीद नहीं दिख रही थी कि तभी पता चला कि शहर से कुछ दूर एक आश्रम में  बहुत पहुंचे हुए गुरु जी का आगमन हुआ. दूर-दूर से लोग उनका प्रवचन सुनने आने लगे. 

एक दिन अरविन्द के माता-पिता भी उसे लेकर महात्मा जी के पास पहुंचे.

उनकी समस्या सुनने के बाद उन्होंने अगले दिन सुबह-सुबह अरविन्द को अपने पास बुलाया. 


अरविन्द को ना चाहते हुए भी भोर में ही गुरु जी के पास जाना पड़ा. 

गुरु जी उसे एक  बागीचे में ले गए और धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए बोले. 

बेटा तुम्हारा पसंदीदा फल कौन सा है.

“आम” अरविन्द बोला.

ठीक है बेटा !  जरा वहां रखे बोरे में से कुछ आम की गुठलियाँ निकालना और उन्हें यहाँ जमीन में गाड़ देना.  

अरविन्द को ये सब बहुत अजीब लग रहा था लेकिन गुरु जी बात मानने के अलावा उसके पास कोई चारा भी नहीं था. 

उसने जल्दी से कुछ गुठलियाँ उठायीं और फावड़े से जमीन खोद उसमे गाड़ दीं.

फिर वे अरविन्द को लेकर वापस आश्रम में चले गए. 

करीब आधे घंटे बाद वे अरविन्द से बोले, “जरा बाहर जा कर देखना उन  गुठलियों में से फल निकला की नहीं!”

“अरे! इतनी जल्दी फल कहाँ से निकल आएगा… अभी कुछ ही देर पहले तो हमने गुठलियाँ जमीन में गाड़ी थीं.”

“अच्छा, तो रुक जाओ थोड़ी देर बाद जा कर देख लेना!”

कुछ देर बाद उन्होंने अरविन्द से फिर बाहर जा कर देखने को कहा.

अरविन्द जानता था कि अभी कुछ भी नहीं हुआ होगा, पर फिर भी गुरु जी के कहने पर वह बागीचे में गया.

लौट कर बोला, “कुछ भी तो नहीं हुआ है गुरूजी…आप फल की बात कर रहे हैं अभी तो बीज से पौधा भी नहीं निकला है.”

“लगता है कुछ गड़बड़ है!”, गुरु जी ने आश्चर्य से कहा.

“अच्छा, बेटा ऐसा करो, उन गुठलियों को वहां से निकाल के कहीं और गाड़ दो…”

अरविन्द को गुस्सा तो बहुत आया लेकिन वह दांत पीस कर रह गया.

कुछ देर बाद गुरु जी फिर बोले, “अरविन्द बेटा, जरा बाहर जाकर देखो…इस बार ज़रूर फल निकल गए होंगे.”

अरविन्द इस बार भी वही जवाब लेकर लौटा और बोला, “मुझे पता था इस बार भी कुछ नहीं होगा…. कुछ फल-वाल नहीं निकला…”

“….क्या अब मैं अपने घर जा सकता हूँ?”

“नहीं, नहीं रुको…चलो हम इस बार गुठलियों को ही बदल कर देखते हैं…क्या पता फल निकल आएं.”

इस बार अरविन्द ने अपना धैर्य खो दिया और बोला, “मुझे यकीन नहीं होता कि आपके जैसे नामी गुरु को इतनी छोटी सी बात पता नहीं कि कोई भी बीज लगाने के बाद उससे फल निकलने में समय लगता है….आपको  बीज को खाद-पानी देना पड़ता है ….लम्बा इन्तजार करना पड़ता है…तब कहीं जाकर फल प्राप्त होता है.”

गुरु जी मुस्कुराए और बोले-

बेटा, यही तो मैं तुम्हे समझाना चाहता था…तुम कोई काम शुरू करते हो…कुछ दिन मेहनत करते हो …फिर सोचते हो प्रॉफिट क्यों नहीं आ रहा!  इसके बाद तुम किसी और जगह वही या कोई नया काम शुरू करते हो…इस बार भी तुम्हे रिजल्ट नहीं मिलता…फिर तुम सोचते हो कि “यार! ये धंधा ही बेकार है!

एक बात समझ लो जैसे आम की गुठलियाँ तुरंत फल नहीं दे सकतीं, वैसे ही कोई भी कार्य तब तक अपेक्षित फल नहीं दे सकता जब तक तुम उसे पर्याप्त प्रयत्न और समय नहीं देते.  

इसलिए इस बार अधीर हो आकर कोई काम बंद करने से पहले आम की इन गुठलियों के बारे में सोच लेना …. कहीं ऐसा तो नहीं कि तुमने उसे पर्याप्त समय ही नहीं दिया!

अरविन्द अब अपनी गलती समझ चुका था. उसने मेहनत और धैर्य के बल पर जल्द ही एक नया व्यवसाय खड़ा किया और एक कामयाब व्यक्ति बना.

 

 

मूर्तिकार और पत्थर

 

एक बार एक मूर्तिकार एक पत्थर को छेनी और हथौड़ी से काट कर  मूर्ति का रूप दे रहा था. जब पत्थर  काटा जा रहा था, तो उसको बहुत दर्द हो रहा था.

कुछ देर तो पत्थर ने बर्दाश्त किया पर जल्द ही उसका धैर्य जवाब दे गया.

वह नाराज़ होते हुए बोला, ” बस ! अब और नहीं सहा जाता. छोड़ दो मुझे मैं तुम्हारे वार को अब और नहीं सह सकता… चले जाओ यहाँ से!”

मूर्तिकार ने समझाया, “अधीर मत हो! मैं तुम्हे भगवान् की मूरत के रूप में तराश रहा हूँ.  अगर तुम कुछ दिनों का दर्द बर्दाश्त कर लोगे तो जीवन भर लोग तुम्हे पूजेंगे… दूर-दूर से लोग तुम्हारे दर्शन करने आयेंगे. दिन-रात पुजारी तुम्हारी देख-भाल में लगे रहेंगे.”

और ऐसा कह कर उसने अपने औजार उठाये ही थे कि पत्थर क्रोधित होते हुए बोला, “मुझे मेरी ज़िन्दगी खुद जीने दो… मैं जानता हूँ मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा… मैं आराम से यहाँ पड़ा हूँ…चले जाओ मैं अब जरा सी भी तकलीफ नहीं सह सकता!”

मैं जानता हूँ तुम्हे दर्द बहुत हो रहा है…पर अगर आज तुम अपना आराम देखोगे तो कल को पछताओगे… मैं तुम्हारे गुणों को देख सकता हूँ तुम्हारे अन्दर आपार संभावनाएं हैं… यूँ यहाँ पड़े-पड़े अपना जीवन बर्बाद मत करो! मूर्तिकार ने समझाया.

पर पत्थर पर उसकी बात का कोई असर नहीं हुआ, वह अपनी बात पर ही अड़ा रहा.

मूर्तिकार पत्थर को वहीँ  छोड़ आगे बढ़ गया.

सामने ही उसे एक दूसरा अच्छा पत्थर दिख गया. उसने उसे उठाया और उसकी मूर्ति बना दी.

दूसरे पत्थर ने दर्द बर्दाश्त कर लिया और वो भागवान की मूर्ति बन गया, लोग रोज उसे  फूल-माला चढाने लगे, दूर-दूर से लोग उसके दर्शन करने आने लगे.

फिर एक दिन एक और पत्थर उस मंदिर में लाया गया और उसे एक कोने में रख दिया गया. उसे नारियल फोड़ने के लिए इस्तमाल किया जाने लगा.  वह कोई और नहीं बल्कि वही पत्थर था जिसने मूर्तिकार को उसे छूने से मना कर दिया था.

अब वह मन ही मन पछता रहा था कि काश उसने उसी वक्त दर्द सह लिया होता तो आज समाज में उसकी भी पूछ होती… सम्मान होता… कुछ दिनों की वह पीड़ा इस जीवन भर के कष्ट से बचा लेती!

दोस्तों, हमारे लिए निर्णय लेने का ये सही समय है कि हम आज दर्द बर्दाश्त करना है या अभी मौज-मस्ती करनी है और फिर जीवन भर का दर्द झेलना है.  आज आप जिस किसी competitive exam की तैयारी कर रहे हों… जो भी skill acquire करने की कोशिश कर रहे हों…जिस किसी खेल में excel करने का प्रयास कर रहे हों…उसमे अपना 100% effort लगाइए… होने दीजिये अपने ऊपर तकलीफों के वार…हार मत मानिए… उस दूसरे पत्थर की तरह अभी सह लीजिये और अपने लक्ष्य को प्राप्त करिए ताकि पहले पत्थर की तरह आपको जीवन भर कष्ट ना सहना पड़े.

 

बुधवार, 27 अक्टूबर 2021

ज़िन्दगी में ठक-ठक तो चलती रहेगी!

 

एक सिपाही अपने घोड़े पर सवार हो कर राज्य की सीमाओं का निरीक्षण करने निकला. घंटों चलने के कारण सिपाही और घोड़ा दोनों ही थक गए थे.

सिपाही ने तो अपने पास रखे पानी से प्यास बुझा ली पर बेचारे घोड़े के लिए कहीं पानी नहीं दिख रहा था. 

पानी की तलाश में दोनों आगे बढ़ गए. थोड़ी देर चलने के बाद कुछ दूर पर एक बूढ़ा किसान अपने बैल के साथ दिखा.

वह खेतों की सींचाई करने के लिए रहट चला रहा था. 


सिपाही उसके समीप पहुँच कर बोला, “काका, मेरा घोड़ा बड़ा प्यासा है इसे जरा पानी पिलाना था.”

“पिला दो बेटा!”, किसान बोला.

सिपाही घोड़े को रहट के पास ले गया ताकि वो उससे गिरता हुआ पानी पी सके. 

पर ये क्या घोड़ा चौंक कर पीछे हट गया.

“अरे! ये पानी क्यों नहीं पी रहा?”, किसान ने आश्चर्य से पूछा.

सिपाही कुछ देर सोचने के बाद बोला, “काका! रहट चलने से ठक-ठक की जो आवाज़ आ रही है उससे यह चौंक कर पीछे हट गया.”

“आप थोड़ी देर अपने बैल को रोक देते तो घोड़ा आराम से पानी पी लेता.”

किसान मुस्कुराया,

बेटा ये ठक-ठक तो चलती रहेगी… अगर मैंने बैल को रोक दिया तो कुंएं से पानी कैसे उठेगा…यदि घोड़े को पानी पीना है तो उसे इस ठक-ठक के बीच ही अपनी प्यास बुझानी होगी…

 सिपाही को बात समझ आ गयी, उसने फिर से घोड़े को पानी पिलाने का प्रयास किया, घोड़ा फिर पीछे हट गया…पर दो-चार बार ऐसा करने के बाद घोड़ा भी समझ गया कि उसे इस ठक-ठक के बीच ही पानी पीना होगा और उसने इस विघ्न के बावजूद अपनी प्यास बुझा ली.  


दोस्तों, इस घोड़े की तरह ही यदि हमें अपनी इच्छित वस्तु पानी है तो जीवन में चल रही ठक-ठक पर से ध्यान हटाना होगा. हमें सही समय के इंतज़ार में अपने प्लान्स को टालना छोड़ना होगा… बहानो के पीछे छुप कर ज़रूरी कम से मुंह मोड़ना छोड़ना होगा…हमें ये कंडिशन लगाना छोड़ना होगा कि हम आइडियल कंडिशन में ही काम करेंगे…क्योंकि ज़िन्दगी में ठक-ठक तो हमेशा ही चलती रहेगी, हमें तो इसी सिचुएशन में अपनी प्यास बुझानी होगी.

 

गुरु नानक देव से जुड़ी कहानियां व प्रेरक प्रसंग

 सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव जी का जीवन प्रेरक प्रसंगों व चमत्कारों से भरा है. अपने प्रिय शिष्यों बाला और मर्दाना के साथ भ्रमण करते हुए उन्होंने जग का कल्याण किया और हमें कई अनमोल उपदेश दिए. आइये आज हम गुरु नानक देव जी के जीवन से जुड़े दस बेहद प्रेरक प्रसंगों को जानते हैं.'

एक समय आदरणीय गुरु नानक देव यात्रा करते हुए नास्तिक विचारधारा रखने वाले लोगों के गाँव पहुंचे. वहां बसे लोगों नें गुरु नानाक देव और उनके शिष्यों का आदर
सत्कार नहीं किया, उन्हें कटु वचन बोले और तिरस्कार किया. इतना सब होने के बाद भी, जाते समय ठिठोली लेते हुए, उन्होंने गुरु नानक देव से आशीर्वाद देने को कहा.

जिस पर नानक देव नें मुस्कुराते हुए कहा “आबाद रहो”

भ्रमण करते हुए, कुछ समय बाद गुरु नानक और उनके शिष्य एक दूसरे गाँव , समीप्रस्थ ग्राम जा पहुंचे. इस गाँव के लोग नेक, दयालु और प्रभु में आस्था रखने वाले थे.

उन्होंने बड़े भाव से सभी का स्वागत सत्कार किया और जाते समय गुरु नानक देव से आशीर्वाद देने की प्रार्थना की. तब गुरु नानक देव नें कहा “उजड़ जाओ\” इतना बोल कर वह आगे बढ़ गए. तब उनके शिष्य भी गुरु के पीछे पीछे चलने लगे.

आगे चल कर उनमें से एक शिष्य खुद को रोक नहीं सका और बोला. है ‘देव’ आप नें तिरस्कार करने वाले उद्दंड मनुष्यों को आबाद रहने का आशीर्वाद दिया और सदाचारी
शालीन लोगों को उजड़ जाने का कठोर आशीर्वाद क्यों दिया?

तब गुरु नानक देव हँसते हुए बोले-

सज्जन लोग उजड़ने पर जहाँ भी जायेंगे वहां अपनी सज्जनता से उत्तम वातावरण का निर्माण करेंगे. परंतु दुष्ट और दुर्जन व्यक्ति जहाँ विचरण करेगा वहां, अपने आचार-विचार से वातावरण दूषित करेगा. इस प्रयोजन से मैंने उन्हें वहीँ आबाद रहने का आशीर्वाद दिया.

अपने गुरु की ऐसी तर्कपूर्ण बात से वह शिष्य संतुष्ट हुआ और वह सब अपने मार्ग पर आगे बढ़ गए.

 

एक बार गुरु नानक देव अपने दोनों चेलों के साथ कामरूप देश गए. वहां के लोग अपने काले जादू के लिए प्रसिद्ध थे. नगर के द्वार पर पहुँचते ही, गुरु नानक एक पेड़ की
छाँव में ध्यान मुद्रा में बैठ गए. उनका चेला मरदाना गाँव के भीतर भोजन और जल का प्रबंध करने गया. दूसरा चेला बाला वहीँ गुरु के पास रुका. एक जलाशय पर मरदाना
अपनी पानी की सुराही भरने लगा तो, वहां उस नगर की रानी की दो बहने आ पहुंची.

उसने मरदाना से वहां आने का कारण पूछा. मरदाना के उत्तर देते ही वह दोनों हँस पड़ी. वह बोलीं की तुम तो भेड़ बकरी की तरह बोलते हो. चलो तुम्हे भेड़-बकरी जैसा बना दें. इतना बोल कर उन में से एक लड़की नें मरदाना को भेड़ बना दिया और वह भे… भें… करने लगा. समय अधिक हुआ तो गुरु नानक और बाला को चिंता हुई. वह दोनों ठीक उसी जगह आ पहुंचे. इस बार उन दोनों लड़कियों नें बारी-बारी मंत्र बोल कर वही टोटका गुरु नानक पर आज़माया. लेकिन उनमें से खुद एक लड़की बकरी बन गई और दूसरी लड़की का हाथ हवा में जम कर शिथिल हो गया.

वहां मौजूद लोगों नें नगर की रानी को यह सूचना दी. वह फ़ौरन मौके पर आ पहुंची. उसने भी पहले तो गुरु नानक पर अपना काला जादू आज़माया. कुछ ही देर में
असफ़लता मिलने पर वह जान गई की उस का पाला किसी दैवीय शक्ति वाले संत से पड़ा है.

माफ़ी मांग लेने पर दयालु गुरु नानक देव नें उन दोनों लड़कियों को ठीक कर दिया. तथा मरदाना को भी उसके असली रूप में ला दिया.

इस प्रसंग के बाद कामरूप के लोगों नें गुरु नानक देव से ज्ञान देने को कहा.

तब गुरु नानक बोले-

हमारे अंदर इश्वर का वास होता है. आप सब को, लोगों को परेशान करना छोड़ कर उनकी मदद करनी चाहिए. ध्यान करो, कर्तव्य पालन करो. लोगों से प्रेम करो. गुरु नानक यह उपदेश दे कर वहां से आगे बढे.

एक समय गुरु नानक देव और उनका चेला मरदाना अमीनाबाद गए. वहां पर एक गरीब किसान लालू नें उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया. उसने यथा शक्ति रोटी और साग इन दोनों को भोजन के लिए दिए. तभी गाँव के अत्याचारी ज़मींदार मलिक भागु का सेवक वहां आया. उसने कहा मेरे मालिक नें आप को भोजन के लिए आमंत्रित किया है.

बार-बार मिन्नत करने पर गुरु नानक लालू की रोटी साथ ले कर मलिक भागु के घर चले.

मलिक भागु नें उनका आदर सत्कार किया. उनके भोजन के लिए उत्तम पकवान भी परोसे. लेकिन उससे रहा नहीं गया. उसने पूछा कि, आप मेरे निमंत्रण पर आने में
संकोच क्यों कर रहे थे? उस गरीब किसान की सूखी रोटी में ऐसा क्या स्वाद है जो मेरे पकवान में नहीं.

इस बात को को सुन कर गुरु नानक नें एक हाथ में लालू की रोटी ली और, दूसरे हाथ में मलिक भागु की रोटी ली, और दोनों को दबाया. उसी वक्त लालू की रोटी से दूध की
धार बहने लगी, जब की मलिक भागु की रोटी से रक्त की धार बह निकली.

गुरु नानक देव बोले-

भाई लालू के घर की सूखी रोटी में प्रेम और ईमानदारी मिली हुई है. तुम्हारा धन अप्रमाणिकता से कमाया हुआ है, इसमें मासूम लोगों का रक्त सना हुआ है. जिसका यह प्रमाण है. इसी कारण मैंने लालू के घर भोजन करना पसंद किया.

यह सब देख कर मलिक भागु उनके पैरों में गिर गया और, बुरे कर्म त्याग कर अच्छा इन्सान बन गया.

प्रेरक प्रसंग #4: उड़ती चटाई

अपने दोनों चेलों के साथ गुरु नानक श्रीनगर- कश्मीर यात्रा पर गए. वहां लोग गुरु नानक देव की सरलता से परिचित थे. एक दिन गुरु नानक वहां लोगों से भेंट करने के लिए आये तो हज़ारों लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी. श्रीनगर में उस समय पर एक पंडित हुआ करते थे, जिनका नाम ब्रह्मदास था. दैवी उपासना और आराधना में प्रवीण होने पर उनके पास कई असाधारण सिद्धि थीं. अपना कौशल दिखाने के लिए ब्रह्मदास उड़ती चटाई पर सवार हो कर गुरु नानक के पास पहुंचे.

स्थान पर पहुँच कर देखा तो लोगों का जमावड़ा था. लेकिन गुरु नानक देव कहीं नज़र नहीं आ रहे थे. इधर-उधर झाँक कर ब्रह्मदास नें लोगों से पूछा, कहाँ है गुरु नानक देव?

तब लोगों नें कहा, आप के सामने ही तो वह बैठे हैं. उड़ती चटाई पर सवार ब्रह्मदास नें सोचा की लोग शायद उसका मज़ाक बना रहे हैं, वहां गुरु नानक तो है ही नहीं. यह सोच कर वह जाने लगा तो, उसकी चटाई ज़मीन पर आ पड़ी और साथ वह भी नीचे आ गिरा.

इस घटना के कारण वहां उसकी खूब किरकिरी हुई, उसे अपनी चटाई कंधे पर लाद कर घर जाना पड़ा. घर जा कर उसने अपने नौकर से पूछा की, मुझे गुरु नानक क्यों नहीं दिखे? तब उनका शालीन नौकर बोला, शायद आप के आँखों पर अहम की पट्टी बंधी थी.

अगले दिन पंडित ब्रह्मदास विनम्रता के साथ चल कर वहां गया. उसने देखा तेज मुखी गुरु नानक वहीँ  विराजमान थे. वह लोगों के साथ सत्संग कर रहे थे. तभी ब्रह्मदास से
रहा नहीं गया, उसने गुरु नानक से सवाल किया, कल मैं चटाई पर उड़ कर आया था, लेकिन तब आप मुझे आप क्यों नहीं दिखे थे?

तब गुरु नानक बोले, इतने अंधकार में भला मैं तुमको कैसे दिखता. यह सुन कर ब्रह्मदास बोला, अरे… अरे… मैं तो दिन के उजाले में आया था. ऊपर आसमान में तो चमकता सूरज मौजूद था, तो अंधकार कैसे हुआ?

गुरु नानक नें कहा-

अहंकार से बड़ा कोई अंधकार है क्या? अपने ज्ञान और आकाश में उड़ने की सिद्धि के कारण तुम खुद को अन्य लोगों से ऊँचा समझने लगे. अपने चारो तरफ़ देखो, कीट-पतंगे, जंतु, पक्षी भी उड़ रहे हैं. क्या तुम इनके समान बनना चाहते हो?

ब्रह्मदास को अपनी भूल समझ आ गयी. उसने गुरु नानक से मन की शांति और उन्नति का ज्ञान लिया और भविष्य में कभी अपनी सिद्धिओं पर अभिमान नहीं किया.

 

प्रेरक प्रसंग #5: पितृ मोक्ष

एक बार गुरु नानक देव अपने शिष्यों के साथ हरिद्वार गए. वहां पर उन्होंने देखा एक पंडित अपने यजमान को सूर्य की और जल अर्पण करने का निर्देश दे रहा था. यह देख कर वह तुरंत पानी में उतरे. उन्होंने सूर्य से उलट दिशा में पानी अर्पण करना शुरू किया.

यह देख कर पंडित गुस्सा हो गया. उसने कहा, जल अर्पण वहां नहीं करते, सूर्य की और करने से पितृ को मोक्ष मिलता है. इस बात को अनसुनी कर के फ़िर से गुरु नानक सूर्य से उलटी दिशा में जल अर्पण करने लगे.

एक बार फिर से टोकने पर, गुरु नानक नें सवाल किया, की पंडित जी, यह पितृ लोक यहाँ से कितनी दूरी पर होगा?

तब पंडित बोले, होगा शायद हज़ारों लाखो किलोमीटर दूर. तब गुरु नानक बोले, अगर यहाँ गंगा किनारे जल अर्पण करने से पितृ लोक में उपस्थित मृत स्वजनों को जल दिया जा सकता है तो, मेरे गाँव में मौजूद मेरे खेत पर तो यह जल अवश्य पहुँच सकता है. मैं अपने खेतों को पानी देने के प्रयोजन से इस दिशा में जल अर्पण कर रहा हूँ.

गुरु नानक की इस बात से यजमान और पंडित हँसे, और उनकी बात का तात्पर्य भी वह समझ गए.

प्रेरक प्रसंग #6: गुरु नानक देव की मक्का यात्रा

एक बार गुरु नानक के मुसलमान चेले मरदाना नें कहा कि वह मक्का मदीना जाना चाहता है. उसका यह मानना था की एक मुसलमान जब तक मक्का नहीं जाता है तब तक सच्चा मुसलमान नहीं कहलाता है. कुछ ही दिनों में गुरु नानक, मरदाना और बाला तीनों मक्का की यात्रा पर निकले. वहां पहुँच जाने पर गुरु नानक काफ़ी थक गए. वह मुसाफिरों के लिए बनी आरामगाह पर जा कर आराम करने लगे.

गुरु नानक को देख कर उस जगह काम करने वाला एक ख़ादिम आग बबूला हो गया. उसने गुरु नानक से गुस्से में कहा- “आपको इतनी समझ नहीं कि खुदा  की ओर पाँव रख कर नहीं सोते?

तब गुरु नानक बोले-

मुझे विश्राम करने दो भाई, मै बहुत थका हुआ हूँ. या फ़िर तुम खुद ही मेरे पाँव उस दिशा में कर दो जिधर खुदा न हों!

तब खादिम को एहसास हुआ कि खुदा तो हर तरफ है और उसने गुरु नानक देव से माफ़ी मांग ली.

गुरु नानक नें भी उसे माफ़ कर दिया और मुस्कुराते हुए कहा- “खुदा दिशाओं में वास नहीं करते, वह तो दिलों में राज करते हैं. अच्छे कर्म करो, खुदा को दिल में रखो, यही खुदा का सच्चा सदका है.”

प्रेरक प्रसंग #7: गुरु नानक और नाग

एक समय गुरु नानक अपनी गाय को चराने के लिए जंगल की ओर ले कर गए. पास में एक सूखा पेड़ का तना देख कर उसके नीचे वह बिछोना लगा कर विश्राम करने लगे.
दिन का समय था इसलिए धूप बहुत तेज़ थी. पेड़ की सूखी शाखाओं के बीच से कड़ी धूप गुरु नानक के चेहरे पर पड़ रही थी. तभी अचानक वहां पर एक बड़े फन वाला काला नाग आ पहुंचा. और गुरु नानक के पास कुंडली मार के बैठ गया.

थोड़ी देर में वहां से राय भुल्लर नाम का एक व्यक्ति अपने घोड़े पर निकला. उसने देखा की एक व्यक्ति सो रहा है और ज़हरीला नाग उसे दंश देने की फ़िराक में है. यह सब देख कर वह बड़ी तेज़ी से गुरु नानक की और बढे. लेकिन जब वह करीब आये तो नज़ारा देख कर स्तब्ध हो गए.

वह काला नाग गुरु नानक को दंश देने नहीं आया था, वह अपना फन फैला कर गुरु नानक के चेहरे पर पड़ने वाली तीक्ष्ण धूप को रोक रहा था. इस दिव्य प्रसंग से प्रभावित
हुए राय भुल्लर आने वाले समय में, गुरु नानक के शिष्यों में शामिल हुए.

प्रेरक प्रसंग #8: बालक नानक का यज्ञोपवीत

कल्याणराय नें एक बार अपने पुत्र नानक का यज्ञोपवीत कराने हेतु, कुटुंब और परिचितों को आमंत्रित किया. बालक नानक आसन पर बैठे, मंत्रोच्चार शुरू हुआ. तब नानक नें पुरोहित से इस विधि का प्रयोजन पूछा.

तब पुरोहित नें कहा, तुम्हारा यज्ञोपवीत संस्कार हो रहा है, हिन्दू धर्म मर्यादा अनुसार “पवित्र सूत” को धारण करना कल्याणकारी होता है. इससे तुम्हे धर्म में दीक्षित कराया
जा रहा है.

कौतुहल वश नानक बोले, यह तो सूत का धागा है, गंदा हो जायेगा ना? और टूट भी सकता है? इस प्रश्न के जवाब में पुरोहित जी नें समझाया की, मैला होने पर इसे साफ़ कर सकते हैं. और खंडित हो जाने पर इसे बदला भी जा सकता है.

अब नानक बोले, देहांत के बाद, यह शरीर के साथ जल भी जाता होगा ना? यदि इसे धारण कर लेने से शरीर, आत्मा, मन तथा यज्ञोपवीत में अखंड पवित्रता नहीं रहती तो इसे धारण करने से क्या लाभ?

नानक नें कहा अगर यज्ञोपवीत धारण कराना है तो, अखंडित और अविनाशी यज्ञोपवीत पहनाओ जिस में दया का कपास हो और संतोष का सूत हो. ऐसा यज्ञोपवीत ही सच्चा
यज्ञोपवीत है.

हे आदरणीय पुरोहित जी, क्या आप के पास ऐसा सच्चा यज्ञोपवीत है? बाल नानक के इस सटीक तर्क की काट वहां मौजूद किसी व्यक्ति के पास न थी.

प्रेरक प्रसंग #9: गुरु नानक देव का सच्चा सौदा

एक समय की बात है, गुरु नानक जी के पिता नें उन्हें 20 रुपये दिए और मुनाफ़े का सौदा कर लाने को कहा.

पिता की आज्ञा अनुसार नानक सौदा लाने निकले. रस्ते में चलते-चलते उनकी भेंट एक साधू के समूह से हुई. वह सब बहुत भूखे थे. उन्हें विश्राम की भी ज़रूरत थी. तब गुरु नानक नें सौदा लेने की रकम उन भूखे साधुओं का पेट भरने में खर्च कर दी और उसके बाद गुरु नानक नें यथा संभव उनकी सेवा भी की. युवा नानक के इस दयालू आचरण से साधू गण अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने गुरु नानक को आशीर्वाद दिया.

घर लौटने पर पिता नें सौदे के बारे में पूछा. तब गुरु नानक बोले-

मैं सच्चा सौदा कर के आया हूँ. ज़रूरतमंद की मदद करना ही सच्चा सौदा है.

गुरु नानक की इस मानवतावादी विचारधारा से उनके पिता बहुत खुश हुए और उन्होंने पुत्र नानक को गले से लगा लिया.

प्रेरक प्रसंग #10: गुरु नानक देव और कोढ़ी

एक बार गुरु नानक देव जी अपने शिष्यों के साथ जगत का उद्धार करते हुए एक गाँव पहुँचे.

वहां गाँव के बाहर सबसे अलग-थलग एक झोपडी बनी थी जिसमे कुष्ठ रोग से ग्रसित एक आदमी रहता था.

नानक देव जी उस कोढ़ी के पास गये और रात भर इस झोपड़ी में ठहरने की अनुमति मांगी… 

कोढ़ी को आश्चर्य हुआ कि एक तरफ जहाँ उसे पूरे गाँव वालों यहाँ तक की उसके घर वालों ने भी अलग कर दिया है और कोई उससे बात नहीं करता वहीँ ये लोग उसके घर में रात भर रहना चाहते हैं…. वह कुछ बोल न सका और सिर्फ नानक देव जी को ओर देखता रहा.

कुछ देर में मरदाना और बाला ने भजन-कीर्तन  शुरू कर दिया. कोढ़ी बड़े ध्यान से कीर्तन सुनने लगा. 

कुछ देर बाद गुरु नानक ने उससे पूछा, “ भाई तुम यहाँ गाँव के बाहर इस झोपड़ी में अकेले क्यों रहते हो?”

तब कोढ़ी ने दुखी मन से बताया कि उसे कोढ़ है जिस कारण उसके घर वालों ने भी उससे सम्बन्ध ख़त्म कर लिए और पूरे गाँव में कोई परछाई तक करीब नहीं आने देता.

तब नानक ने कहा, “ जरा मुझे भी तो अपना रोग दिखाओ?”

फिर जैसे ही वह कोढ़ी नानक जी को अपना रोग दिखाने को उठा … एक महान चमत्कार हुआ… उसके हाथ-पाँव की उँगलियाँ सीधी हो गयीं….सभी अंग ठीक प्रकार से काम करने लगे…. उसका कुष्ट रोग हमेशा के लिए ख़त्म हो गया. 

वह नानक देव जी के चरणों में लिपट पड़ा.

नानक जी ने उसे उठाया और गले लगा कर कहा – प्रभु का स्मरण करो और लोगों की सेवा करो; यही मनुष्य के जीवन का मुख्य कार्य है !

…..सत श्री अकाल…..

 

बदले की आग

बहुत समय पहले की बात है, किसी कुँए में मेढ़कों का राजा गंगदत्त अपने परिवार व कुटुम्बियों के साथ रहता था। वैसे तो गंगदत्त एक अच्छा शाषक था और सभी का ध्यान रखता था, पर उसमे एक कमी थी, वह किसी भी कीमत पर अपना विरोध सहन नहीं कर सकता था।

लेकिन एक बार गंगदत्त के एक निर्णय को लेकर कई मेंढकों ने उसका विरोध कर दिया। गंगदत्त को ये बात सहन नहीं हुई कि एक राजा होते हुए भी कोई उसका विरोध करने की हिम्मत जुटा सकता है। वह उन्हें सजा देने की सोचने लगा। लेकिन उसे भय था कि कहीं ऐसा करने पर जनता उसका विरोध ना कर दे और उसे अपने राज-पाठ से हाथ धोना पड़ जाए।

फिर एक दिन उसने कुछ सोचा और रात के अँधेरे में चुपचाप कुँए से बाहर निकल आया।

बिना समय गँवाए वह फ़ौरन  प्रियदर्शन नामक एक सर्प के बिल के पास पहुंचा और उसे पुकारने लगा।

एक मेढक को इस तरह पुकारता सुनकर प्रियदर्शन को बहुत आश्चर्य हुआ। वह बाहर निकला और बोला, “कौन हो तुम? क्या तुम्हे इस बात का भय नहीं कि मैं तुम्हे खा सकता हूँ?”

गंगदत्त बोला,” हे सर्पराज! मैं मेढ़कों का राजा गंगदत्त हूँ और मैं यहाँ आपसे मैत्री करने के लिए आया हूँ।”

“यह कैसे हो सकता है। क्या दो स्वाभाविक शत्रु आपस में मित्रता कर सकते हैं?”, प्रियदर्शन ने आश्चर्य से कहा।

गंगदत्त बोला, “आप ठीक कहते हैं, आप हमारे स्वाभाविक शत्रु हैं। लेकिन इस समय मैं अपने ही लोगों द्वारा अपमानित होकर आपकी शरण में आया हूँ, और शाश्त्रों में कहा भी तो गया है- सर्वनाश की स्थिति में अथवा अपने प्राणों की रक्षा हेतु शत्रु की अधीनता स्वीकार करने में ही समझदारी है… कृपया मुझे अपनी शरण में लें। मेरे दुश्मनों को मारकर मेरी मदद करें।”

प्रियदर्शन अब बूढ़ा हो चुका था, उसने मन ही मन सोचा कि यदि इस मेंढक की वजह से मेरा पेट भर पाए तो इसमें बुराई ही क्या है.

वह बोला, “बताओ, मैं तुम्हारी मदद कैसे कर सकता हूँ?”

सर्प को मदद के लिए तैयार होता देख गंगदत्त प्रसन्न हो गया और बोला, “आपको मेरे साथ कुएं में चलना होगा, और वहां मैं जिस मेंढक को भी आपके पास लेकर आऊंगा उसे मारकर खाना होगा। और एक बार मेरे सारे दुश्मन ख़तम हो जाएं तो आप वापस अपने बिल में आकर रहने लगिएगा”

“पर कुएं में मैं रहूँगा कैसे मैं तो अपने बिल में ही आराम से रह सकता हूँ?”, प्रियदर्शन ने चिंता व्यक्त की।

उसकी चिंता आप छोड़ दीजिये आप हमारे मेहमान हैं, मैं आपके रहने का पूरा प्रबंध पहले ही कर आया हूँ. परन्तु वहां जाने से पहले आपको एक वचन देना होगा।

“वह क्या?” प्रियदर्शन बोला।

“वह यह कि आपको मेरी, मेरे परिवार वालों और मेरे साथियों की रक्षा करनी होगी!”, गंगदत्त ने कहा।

प्रियदर्शन बोला- “निश्चितं रहो तुम मेरे मित्र बन चुके हो। अत: तुमको मुझसे किसी भी प्रकार का भय नहीं होना चाहिए। मैं तुम्हारे कहे अनुसार ही मेंढ़कों को मार-मार कर खाऊँगा।”

बदले की आग में जल रहा गंगदत्त प्रियदर्शन को लेकर कुएं में उतरने लगा।

पानी की सतह से कुछ ऊपर एक बिल था, प्रियदर्शन उस बिल में जा घुसा और गंगदत्त चुपचाप अपने स्थान पर चला गया।

अगले दिन गंगदत्त ने एक सभा बुलाई और कहा कि आप सबके लिए खुशखबरी है, बड़े प्रयत्न के बाद मैंने एक ऐसा गुप्त मार्ग ढूंढ निकाला है जिसके जरिये हम यहाँ से निकल कर एक बड़े तालाब में जा सकते हैं, और बाकी की ज़िन्दगी बड़े आराम से जी सकते हैं। पर ध्यान रहे मार्ग कठिन और अत्यधिक सकरा है, इसलिए मैं एक बार में बस एक ही मेंढक को उससे लेकर जा सकता हूँ।

अगले दिन गंगदत्त एक दुश्मन मेंढक को अपने साथ लेकर आगे बढ़ा और योजना अनुसार सांप के बिल में ले गया।

प्रियदर्शन तो तैयार था ही, उसने फ़ौरन उस मेंढक को अपना निवाला बना लिया।

अगले कई दिनों तक यह कार्यक्रम चलता रहा और वो दिन भी आ गया जब गंगदत्त का आखिरी दुश्मन प्रियदर्शन के मुख का निवाला बन गया।

गंगदत्त का बदला पूरा हो चुका था। उसने चैन की सांस ली और प्रियदर्शन को धन्यवाद देते हुए बोला, “सर्पराज, आपके सहयोग से आज मेरे सारे शत्रु ख़त्म हो गए हैं, मैं आपका यह उपकार जीवन भर याद रखूँगा, कृपया अब अपने घर वापस लौट जाएं।”

प्रियदर्शन ने कुटिलता भरी वाणी में कहा, “कौन-सा घर मित्र? प्राणी जिस घर में रहने लगता है, वही उसका घर होता है। अब मैं वहाँ कैसे जा सकता हूं? अब तक तो किसी और ने उस पर अपना अधिकार कर लिया होगा। मैं तो यही रहूंगा।”

“पर… आपने तो वचन दिया था।”, गंगदत्त गिड़गिड़ाया।

“वचन? कैसा वचन? अपने ही कुटुम्बियों की हत्या करवाने वाला नीच आज मुझसे मेरे वचन का हिसाब मांगता है! हा हा हा!” प्रियदर्शन ठहाका मारकर हंसने लगा।

और देखते ही देखते गंगदत्त को अपने जबड़े में जकड़ लिया।”

आज गंगदत्त को अपनी गलती का एहसास हो रहा था, बदले की आग में सिर्फ उसके दुश्मन ही नहीं जले… आज वो खुद भी जल रहा था।

मित्रों, क्षमा करने को हमेशा बदला लेने से श्रेयस्कर बताया गया है। बदले की चाह व्यक्ति के विचारों को दूषित कर देती है, उसके मन का चैन छीन लेती है। ये एक ऐसी आग होती है जो किसीऔर को जलाए या ना जलाए बदले की भावना

रखने वाले को ज़रूर भष्म कर देती है। अतः हमें इस दुर्भावना से दूर रहना चाहिए। हमें ये समझना चाहिए कि हर किसी को उसके कर्मों का फल अवश्य मिलता है, यदि आपके साथ किसी ने बुरा किया है तो उसका फल उसे भगवान् को देने दीजिये खुद को बदले की आग में मत जलाइये!

 

मंगलवार, 26 अक्टूबर 2021

त्याग पर कहानी

 

बहुत पुरानी बात है। किसी नगर में हरीश नाम का एक नवयुवक रहता था। बेचारे के मां-बाप स्वर्ग सिधार चुके थे। गरीब होने के कारण उसके पास अपने खेत भी नहीं थे, औरों के खेतों में वह दिन भर छोटे-मोटे काम करता और बदले में खाने के लिए आटा-चावल ले आता।

घर आकर वह अपना भोजन तैयार करता और खा-पीकर सो जाता। जीवन ऐसे ही संघर्षपूर्ण था ऊपर से एक और मुसीबत उसके पीछे पड़ गयी।

एक दिन उसने अपने लिए चार रोटियां बनाई। हाथ-मुंह धो कर वापस आया तब तक 3 ही बचीं। दूसरे दिन भी यही हुआ। तीसरे दिन उसने रोटियां बनाने के बाद उस स्थान पर नज़र रखी। उसने देखा कि कुछ देर बाद वहां एक मोटा सा चूहा आता है और एक रोटी उठा कर वहां से जाने लगता है।

हरीश तैयार रहता है, वह फ़ौरन चूहे को पकड़ लेता है।

चूहा बोला, “भैया, मेरी किस्मत का क्यों खा रहे हो। मेरी चपाती मुझे ले जाने दो।”

“तुम्हे ले जाने दी तो मेरा पेट कैसे भरेगा? मैंने पहले से ही अपने जीवन से परेशान हूँ ऊपर से अब पेट भर खाना भी ना मिले तो मैं क्या करूँगा….ना जाने मेरे जीवन में खुशहाली कब आएगी?”, हरीश बोला।

इस पर चूहे ने कहा, “ तुम्हारे सारे सवालों का जवाब तुम्हें मतंग ऋषि दे सकते हैं।

हरीश ने पूछा कौन हैं वह?

चूहे ने उत्तर दिया- वह एक पहुंचे हुए संत हैं, उतर दिशा में कई पर्वतों और नदियों को पार करके ही उनके आश्रम तक पहंचा जा सकता है. तुम उन्ही के पास जाओ, वही तुम्हारा उधार करेंगे।

हरीश चूहे की बात मान गया, और अगली सुबह ही खाने-पीने की गठरी बाँध कर आश्रम की ओर बढ़ चला।

काफी दूर चलने के बाद उसे एक हवेली दिखाई दी। हरीश वहां गया  और रात भर के लिए शरण मांगी।

हवेली की मालकिन ने पूछा – बेटा कहां जा रहे हो?

हरीश –  मैं मतंग ऋषि के आश्रम जा रहा हूं।

मालकिन – बहुत अच्छा, उनसे मेरे एक प्रश्न का उत्तर मांग कर लाना कि  मेरी बेटी 20 साल की हो गयी है, वह देखने में अत्यंत सुन्दर है, उसके अन्दर हर प्रकार के गुण भी विद्यमान हैं बेचारी ने अभी तक एक शब्द नहीं बोला है, पूछना वह कब बोलना शुरू करेगी?

और ऐसा कहते-कहते मालकिन रो पड़ीं।
हरीश- जी आप परेशान ना हों, मैं आपका उत्तर ज़रूर लेकर आहरीश अगले दिन आगे चल पड़ा।

रास्ता बहुत ज्यादा लंबा था। रास्ते में उसे बड़े-बड़े बर्फीले पहाड़ मिले। उसे समझ नहीं आ रहा था कि कैसे पार करूं। समय बीत रहा था। तभी उसे एक तांत्रिक दिखाई दिया जो वहां बैठ कर तपस्या कर रहा था।

हरीश तांत्रिक के पास गया और उससे बोला कि मुझे मतंग ऋषि के दर्शन को जाना है कैसे जाऊं? रास्ता तो बहुत ही परेशानी वाला लग रहा है?

तांत्रिक – मैं तुम्हारा सफ़र आसान बना दूंगा पर तुम्हे मेरे एक प्रश्न का उत्तर लाना होगा।

हरीश- किन्तु जब आप मुझे वहां पहुंचा सकते हैं तो स्वयं क्यों नहीं चले जाते?

तांत्रिक- क्योंकि मैंने इस स्थान को छोड़ा तो मेरी तपस्या भंग हो जायेगी।

हरीश- ठीक है आप अपना प्रश्न बताएँ।

तांत्रिक- पूछना मेरी तपस्या कब सफल होगी?  मुझे ज्ञान कब मिलेगा?

हरीश- ठीक है मैं इस प्रश्न का उत्तर ज़रूर लाऊंगा.

इसके बाद तांत्रिक ने अपनी तांत्रिक विद्या से लड़के को पहाड़ पार करा दिया।

अब आश्रम तक पहुँचने के लिए सिर्फ एक नदी ही पार करनी थी।

हरीश इतनी विशाल नदी देखकर घबडा गया, तभी उसे नदी के किनारे एक बड़ा सा कछुआ दिखाई दिया। लड़के ने कछुए से मदद मांगी। आप मुझे अपनी पीठ पर बैठाकर नदी पार करा दीजिए।

कछुए ने कहा ठीक है।

जब दोनो नदी पार कर रहे थे तो कछुए ने पूछा- कहां जा रहे हो।

हरीश ने उत्तर दिया- मैं मतंग ऋषि से मिलने जा रहा हूं।

कछुए ने कहा- “ये तो बहुत अच्छी बात है। क्या तुम मेरा एक प्रश्न उनसे पूछ सकते हो?

हरीश- जी अपना प्रश्न बताइए।

कछुआ – मैं एक असाधारण कछुआ हूँ जो समय आने पर ड्रैगन बन सकता है। 500 सालों से मै इसी नदी में हूं और ड्रैगन बनने की कोशिश कर रहा हूं। मैं ड्रैगन कब बनूंगा? बस यह पूछ कर के आ जाना।

नदी पार करके कुछ दूर जाने पर मतंग ऋषि का आश्रम दिखाई देने लगा।

आश्रम में प्रवेश करने पर शिष्यों ने हरीश का स्वागत किया।

संध्या समय ऋषि ने हरीश को दर्शन दिए और बोले – पुत्र, मैं तुम्हारे किन्ही भी तीन प्रश्नों का उत्तर दे सकता हूँ. पूछो अपने प्रश्न।

हरीश असमंजस में फंस गया कि वह अपना प्रश्न पूछे या उसकी मदद करने वाली मालकिन, तांत्रिक और कछुए का!

वह अपना प्रश्न पूछना चाहता था पर उसने सोचा कि उसे मुसीबत में मदद करने वाले लोगों का उपकार नहीं भूलना चाहिये, उसे ये नहीं भूलना चाहिए कि उसने उन लोगों से उनके प्रश्नों के उत्तर लाने का वादा किया है।

उसी पल उसने निश्चय किया कि वह खूब मेहनत करेगा और अपनी ज़िन्दगी बदल देगा… लेकिन इस समय उन 3 लोगों की जिंदगी में बदलाव लाना जरूरी है।

और यही सोचते-सोचते उसने ऋषि से पूछा – हवेली के मालिक की बेटी कब बोलेगी?

ऋषि – जैसे ही उसका विवाह होगा, वह  बोलना शुरू कर देगी।

हरीश – तांत्रिक को मोक्ष कब प्राप्त होगा?

ऋषि – जब वह अपनी तांत्रिक विद्या का मोह छोड़ उसे किसी और को दे देगा तब उसे ज्ञान की प्राप्ति हो जाएगी।

हरीश – वह कछुआ ड्रैगन कब बनेगा?

ऋषि – जिस दिन उसने अपना कवच उतार दिया वह ड्रैगन बन जाएगा।

हरीश ऋषि से उत्तर जानकर बहुत प्रसन्न हुआ। अगली सुबह वह ऋषि का चरण स्पर्श कर वहां से प्रस्थान कर गया।

वापस रास्ते में कछुआ मिला। उसने हरीश को नदी पार करा दी और अपने प्रश्न के बारे में पूछा।

तब हरीश ने कछुए से कहा कि भैया अगर तुम अपना कवच उतार दो तो तुम ड्रैगन बन जाओगे।

कछुए ने जैसे ही कवच उतारा, उसमे से ढेरों मोती झड़ने लगे, कछुए ने वे सारे मोती हरीश को दे दिए और कुछ ही पलों में ड्रैगन में बदल गया।

उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसने फ़ौरन हरीश को अपने ऊपर बिठाया और बर्फीली पहाड़ियां पार करा दीं।

थोड़ा आगे जाने पर उसे तांत्रिक मिला।

हरीश ने उसे ऋषि की बात बता दी कि जब आप अपनी तांत्रिक विद्या किसी और को दे देंगे तो आपको ज्ञान की प्राप्ति हो जाएगी।

तांत्रिक बोला, अब मैं कहाँ किसे ढूँढने जाऊँगा, ऐसा करो तुम ही मेरी विद्या ले लो, और ऐसा कहते हुए तांत्रिक ने अपनी सारी विद्या हरीश को दे दी और अगले ही क्षण उसे ज्ञान प्राप्ति की अनुभूति हो गयी।

हरीश वहां से आगे बढ़ा और तांत्रिक से मिली विद्या के दम पर जल्द ही हवेली पहुँच गया।

मालकिन ने उसे देखते ही पूछा क्या कहा ऋषि मतंग ने मेरी बिटिया के बारे में?

“जिस दिन उसकी शादी हो जायेगी, वह बोलने लगेगी।”, हरीश ने उत्तर दिया.

मालकिन बोलीं तो देर किस बात की है तुम इतनी बड़ी खुशखबरी लाये हो भला तुम से अच्छा लड़का उसके लिए कौन हो सकता है।

दोनों की शादी करा दी गयी। और सचमुच लड़की बोलने लगी।

हरीश अपनी पत्नी को लेकर गाँव पहुंचा। उसने सबसे पहले उस चूहे को धन्यवाद दिया और अपनी नयी हवेली में उसके लिए भी रहने की एक जगह बनवा दी।

दोस्तों, कभी जीवन से हार चुके हरीश के पास आज धन-दौलत, परिवार, ताकत सब कुछ था, सिर्फ इसलिए क्योंकि उसने अपने प्रश्न का त्याग किया था, उसने खुद से पहले दूसरों के बारे में सोचा था।

और यही जीवन में कामयाब होने का फार्मूला है, ये मत पूछिए कि औरों ने आपके लिए क्या किया ये सोचिये कि आपने औरों के लिए क्या किया?

जब आप इस सेवा भाव के साथ दुनिया की सेवा करेंगे और दूसरों के लिए अपनी इच्छा का त्याग करेंगे तो ईश्वर आपके जीवन में भी चमत्कार करेगा और त्याग की ताकत से  आपको जीवन की हर खुशियाँ  सहज ही प्राप्त हो जायेंगी।

दुखों से मुक्ति

एक बार भगवान् बुद्ध एक गाँव में उपदेश दे रहे थे। उस गाँव का एक धनाड्य व्यक्ति बुद्ध के उपदेश सुनने आया। उपदेश सुनकर उसके मन में एक प्रश्न पूछने की जिज्ञासा हुई। परन्तु सबके बीच में प्रश्न पूछने में उसे कुछ संकोच हुआ क्योंकि उस गाँव में उसकी बहुत प्रतिष्ठा थी और प्रश्न ऐसा था कि उसकी प्रतिष्ठा दांव पर लग जाती। इसलिए वह सबके जाने का इन्तजार करने लगा। जब सब लोग चले गये तब वह उठकर बुद्ध के पास आया और अपने दोनों हाथ जोड़कर बुद्ध से कहने लगा –

प्रभु मेरे पास सब कुछ है। धन, दौलत , पद, प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य किसी चीज की कोई कमी नही है, परन्तु मैं खुश नही हूँ। हमेशा खुश रहने का राज क्या है ? मैं जानना चाहता हूँ कि हम हमेशा प्रसन्न कैसे रहें?

बुद्ध कुछ देर तक चुप रहे और फिर बोले, “तुम मेरे साथ जंगल में चलो मैं तुम्हें खुश रहने का राज बताता हूँ।”

ऐसा कहकर बुद्ध उसे साथ लेकर जंगल की तरफ बढ़ चले। रास्ते में बुद्ध ने एक बड़ा सा पत्थर उठाया और उस व्यक्ति को देते हुए कहा, इसे पकड़ो और चलो।

वह व्यक्ति पत्थर उठाकर चलने लगा। कुछ समय बाद उस व्यक्ति के हाथ में दर्द होने लगा, लेकिन वह चुप रहा और चलता रहा। लेकिन जब चलते हुए काफी समय बीत गया और उस व्यक्ति से
दर्द सहा नही गया, तो उसने बुद्ध को अपनी परेशानी बताई।

बुद्ध ने उससे कहा – पत्थर नीचे रख दो। पत्थर नीचे रखते ही उस व्यक्ति को बड़ी राहत महसूस हुई।

तभी बुद्ध ने समझाया –

यही खुश रहने का राज है।

उस व्यक्ति ने कहा , भगवान में कुछ समझा नहीं।

बुद्ध बोले , “जिस तरह इस पत्थर को कुछ पल तक हाथ में रखने पर थोड़ा सा दर्द, एक घण्टे तक रखने पर थोड़ा ज्यादा दर्द, और काफी  समय तक उठाए रखने पर तेज दर्द होता है, उसी तरह दुखों के बोझ को हम जितने ज्यादा समय तक अपने कन्धों पर उठाए रखेंगे, उतने ही ज्यादा दुखी और निराश रहेंगे।”यह हम पर निर्भर करता है, कि हम दुखों के बोझ को कुछ पल तक उठाए रखना चाहते हैं या जिन्दगी भर। अगर खुश रहने की आकांक्षा हो तो दुख रूपी पत्थर को जल्द से जल्द नीचे रखना सीखना होगा। सम्भव हो तो उसे उठाने से ही बचना होगा।

मित्रों, हम सभी यही करते हैं। अपने दुखो के बोझ को ढोते रहते हैं। मैंने अपने जीवन में कई लोगो को कहते सुना है-

उसने मेरा इतना अपमान किया कि मैं जिन्दगी भर नहीं भूल सकता।

वास्तव में अगर आप उसे नही भूलते हैं तो आप अपने आप को ही कष्ट दे रहे हैं।

दुखों से मुक्ति तभी सम्भव है जब हम दुख के बोझ को अपने मन से जल्द से जल्द निकाल दें और इच्छाओ से रहित होकर  या जो है उसमे संतोष कर प्रसन्न रहें।

याद रखिये प्रत्येक क्षण अपने आप में नया है और जो क्षण बीत चुका है उसकी कड़वी यादों को मन में संजोकर रखने से बेहतर है कि हम अपने वर्तमान क्षण का पूर्णरूप से आनन्द उठायें।

इसलिए खुश रहिए प्रसन्न रहिए।

सोमवार, 25 अक्टूबर 2021

असली ख़ुशी

 

नीलेश बड़ा असमंजस में था, समझ में ही नहीं आ रहा था कि हंसे या रोए। सामने मार्कशीट पड़ी हुई थी, जिसमें हर विषयों में उसे सबसे अधिक नंबर मिले थे पर उसे वह खुशी नहीं मिल पा रही थी जो अच्छे अंक मिलने पर होती है।

आखिर नीलेश के साथ ऐसा क्यों हो रहा था… क्या हुआ था नीलेश के साथ?

दरअसल, नीलेश और कमल दोनों एक ही कक्षा में पढ़ते थे। पर दोनों के स्वभाव में बहुत अंतर था। जहां कमल शांत स्वभाव का था, वहीं नीलेश को हर समय कोई ना कोई शरारत सूझते रहती थी। पढ़ाई में उसका मन ही नहीं लगता था। वहीँ कमल पढ़ाई में अव्वल था। शिक्षक के हर सवालों का जवाब वह फट्ट से दे देता था। नीलेश को इसी चीज की तकलीफ थी। खुद पढ़ाई में ध्यान ना लगा कर कमल के हर क्रियाकलापों की कॉपी करना ही उसका काम था। कैसे उसे पीछे धकेले और नीचा दिखाए, बस इसी चक्कर में वह हमेशा लगा रहता था। इन सबके बीच में इसका सबसे बुरा असर उसकी खुद की पढ़ाई पर पड़ रहा था।

इसी तरह एक बार लंच टाइम में जब कमल थोड़ी देर के लिए कक्षा से बाहर गया तो नीलेश ने उसके स्कूल बैग से विज्ञान की कॉपी चुरा ली। ताकि जब शिक्षक उससे कुछ पूछे तो वह जवाब देने की स्थिति में ना हो। हुआ भी वही शिक्षक की खूब डांट पड़ी कमल को। निलेश तो मंद-मंद मुस्कुरा रहा था।

हर समय नीलेश मौके की ताक में रहता कि कैसे कमल को परेशान करें। एक तरह से वह कमल की वजह से हीन भावना का शिकार भी होते जा रहा था। उसे लगता था कि वह कभी पढ़ाई नहीं कर पाएगा। कभी कमल का पेन गायब कर देता तो कभी लंच बॉक्स में खाना ही नहीं रहता। कमल को परेशान देखकर उसे बड़ी खुशी होती थी। धीरे-धीरे उसकी शरारत और हीन भावना दोनों ही बढ़ने लगे। क्लास के दूसरे बदमाश लड़कों से भी उसकी दोस्ती हो गई थी जो उसे हर समय उकसाते रहते थे ।

नीलेश की एक दोस्त थी रितिका जिसकी हर बात वह मानता था। नीलेश की हरकतों को देखकर रितिका को बड़ी तकलीफ हो रही थी, उसने उसे समझाने की बहुत कोशिश की, पर वह हीन भावना का ऐसा शिकार हुआ था कि निकल ही नहीं पा रहा था।

देखते-देखते परीक्षाएं नजदीक आ गयीं। निलेश की पूरी कोशिश थी कि इस बार कमल को पहले रैंक पर नहीं आने देगा। अचानक कुछ उड़ती हुई खबर मिली उसे। उसके कुछ उद्दंड दोस्तों ने एग्जाम के पेपर चुरा लिए और नीलेश को दे दिया। नीलेश की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। अब तो इस बार वह अव्वल आकर ही रहेगा। परीक्षाएं खत्म हो गई और कुछ दिन के बाद रिजल्ट भी आ गया। अपनी कक्षा में वह सबसे अव्वल था। उसने कमल की तरफ विजयी मुस्कान से देखा। आज उसने कमल को पीछे छोड़ दिया था। कमल को अपने कम नंबरों से थोड़ी निराशा जरूर थी पर वह हारा नहीं था। उसने नीलेश को उसके सफलता पर बहुत बधाई दी और उसे गले लगा लिया।

नीलेश असमंजस में पड़ गया, क्या करे क्या ना करे, अपने स्वभाव पर रोए या कमल की अच्छाई पर खुश हो। जिस लड़के को उसने परेशानी के सिवा कुछ ना दिया था, आज वही उसे उसकी सफलता पर बधाई दे रहा था। पल भर में ही उसकी जीत की खुशी काफूर हो गई और आईने की तरह उसके कारनामे सामने दिखने लगे।

बेईमानी से लायी गयी रैंक पर उसे अब बड़ी शर्मिंदा हो रही थी, सामने रखे अच्छे अंक भी उसे बार-बार उसकी गलतियों का एहसास करा रहे थे। उसकी आंखों के कोरों से शर्मिंदगी के आंसू बहने लगे और अपनी गलतियों को सुधारने का मौका सूझने लगा। उसने मन में ठान लिया कि वह कमल से अपनी पिछली गलतियों के लिए माफी मांगेगा और शिक्षक के सामने अपनी चोरी भी कुबूल करेगा, चाहे उसे स्कूल से निकलना ही क्यों ना पड़े।

तभी सर ने आवाज दी, “नीलेश यहाँ आओ, तुम्हारी क्लास में फर्स्ट रैंक आई है, मैं तुमसे बहुत खुश हूँ, बताओ तुमने ये सफलता कैसे हासिल की?”

नीलेश बड़ा असमंजस में था, समझ में ही नहीं आ रहा था कि हंसे या रोए। सामपेपर ने मार्कशीट पड़ी हुई थी, जिसमें हर विषयों में उसे सबसे अधिक नंबर मिले थे पर उसे वह खुशी नहीं मिल पा रही थी जो अच्छे अंक मिलने पर होती है।

नीलेश दबे क़दमों से ब्लैक बोर्ड के सामने पहुंचा-

“सर, फर्स्ट रैंक मेरी नहीं कमल की आई है, मैं आप सभी से माफ़ी मांगता हूँ… मैंने चीटिंग की है, कमल को नीचा दिखाने के लिए मैंने पेपर आउट करा दिया था।

सर, आप इसकी जो चाहे वो सजा मुझे दे सकते हैं। कमल, I am really sorry! मैंने हमेशा तुम्हे परेशान करता रहा पर आज तुमने ही मुझे गले लगा कर बधायी दी।”

और ये कहते-कहते नीलेश की आँखों में आँसू आ गए।

क्लास के सबसे शरारती बच्चे को इस तरह टूटता देख सभी भावुक हो गए, रितिका और कमल फ़ौरन उसके पास पहुंचे और उसका हाथ थाम लिया।

स्कूल मैनेजमेंट ने भी नीलेश का पश्चाताप बेकार नहीं जाने दिया और पुनः परीक्षा ले उसे पास कर दिया।

लालच का फल

किसी गांव में एक गड़रिया रहता था। वह लालची स्वभाव का था, हमेशा यही सोचा करता था कि किस प्रकार वह गांव में सबसे अमीर हो जाये। उसके पास कुछ बकरियां और उनके बच्चे थे। जो उसकी जीविका के साधन थे।

एक बार वह गांव से दूर जंगल के पास पहाड़ी पर अपनी बकरियों को चराने ले गया। अच्छी घास ढूँढने के चक्कर में आज वो एक नए रास्ते पर निकल पड़ा। अभी वह कुछ ही दूर आगे बढ़ा था कि तभी अचानक तेज बारिश होने लगी और तूफानी हवाएं चलने लगीं। तूफान से बचने के लिए गड़रिया कोई सुरक्षित स्थान ढूँढने लगा। उसे कुछ ऊँचाई पर एक गुफा दिखाई दी। गड़रिया बकरियों को वहीँ बाँध उस जगह का जायजा लेने पहुंचा तो उसकी आँखें फटी की फटी रह गयीं। वहां बहुत सारी जंगली भेड़ें मौजूद थीं।

मोटी- तगड़ी भेड़ों को देखकर गड़रिये को लालच आ गया। उसने सोचा कि अगर ये भेड़ें मेरी हो जाएं तो मैं गांव में सबसे अमीर हो जाऊंगा। इतनी अच्छी और इतनी ज्यादा भेड़ें तो आस-पास के कई गाँवों में किसी के पास नहीं हैं।

उसने मन ही मन सोचा कि मौका अच्छा है मैं कुछ ही देर में इन्हें बहला-फुसलाकर अपना बना लूंगा। फिर इन्हें साथ लेकर गांव चला जाऊंगा।

यही सोचते हुए वह वापस नीचे उतरा। बारिश में भीगती अपनी दुबली-पतली कमजोर बकरियों को देखकर उसने सोचा कि अब जब मेरे पास इतनी सारी हट्टी-कट्टी भेडें हैं तो मुझे इन बकरियों की क्या ज़रुरत उसने फ़ौरन बकरियों को खोल दिया और बारिश में भीगने की परवाह किये बगैर कुछ रस्सियों की मदद से घास का एक बड़ा गट्ठर तैयार कर लिया.

गट्ठर लेकर वह एक बार फिर गुफा में पहुंचा और काफी देर तक उन भेड़ों को अपने हाथ से हरी-हरी घास खिलाता रहा। जब तूफान थम गया, तो वह बाहर निकला। उसने देखा कि उसकी सारी बकरियां उस स्थान से कहीं और जा चुकी थीं।

गड़ेरिये को इन बकरियों के जाने का कोई अफ़सोस नहीं था, बल्कि वह खुश था कि आज उसे मुफ्त में एक साथ इतनी अच्छी भेडें मिल गयी हैं।  यही सोचते-सोचते वह वापस गुफा की ओर मुड़ा लेकिन ये क्या… बारिश थमते ही भेडें वहां से निकल कर दूसरी तरफ जान लगीं।  वह तेजी से दौड़कर उनके पास पहुंचा और उन्हें अपने साथ ले जाने की कोशिश करने लगा। पर भेडें बहुत थीं, वह अकेला उन्हें नियंत्रित नहीं कर सकता था… कुछ ही देर में सारी भेडें उसकी आँखों से ओझल हो गयीं।

यह सब देख गड़रिये को गुस्सा आ गया। उसने चिल्लाकर बोला –

तुम्हारे लिए मैंने अपनी बकरियों को बारिश में बाहर छोड़ दिया। इतनी मेहनत से घास काट कर खिलाई… और तुम सब मुझे  छोड़ कर चली गयी… सचमुच कितनी स्वार्थी हो तुम सब।

गड़रिया बदहवास होकर वहीं बैठ गया। गुस्सा शांत होने पर उसे समझ आ गया कि दरअसल स्वार्थी वो भेडें नहीं बल्कि वो खुद है, जिसने भेड़ों की लालच में आकर अपनी बकरियां भी खो दीं।

कहानी से सीख : लोभ का फल नामक यह कहानी हमें सिखाती है कि जो व्यक्ति स्वार्थ और लोभ में फंसकर अपनों का साथ छोड़ता है, उसका कोई अपना नहीं बनता और अंत में उसे पछताना ही पड़ता है।

शनिवार, 23 अक्टूबर 2021

फेसबुक फ्रेंड

अभय एक सीधा-साधा लड़का था। ग्रेजुएशन की पढाई करने के लिए अब उसे अपना गाँव छोड़कर शहर में दाखिला लेना था। किसान पिता ने एक-एक पैसा जोड़कर अभय के लिए शहर में सारी व्यवस्था कर दी और ये सोचकर एक स्मार्ट फोन भी दिला दिया कि ऑनलाइन पढाई करने में इसका उपयोग होगा।

स्वभाव से अंतर्मुखी अभय को अब अपने सपनों को पूरा करने के लिए बहुत मेहनत करनी थी। अपने संकोची स्वभाव के कारण  वह शहर के बच्चों के साथ उतना घुल-मिल नहीं पाया और दोस्त बनाने के लिए उसने सोशल मीडिया का सहारा लिया। ऐसे ही फेसबुक पर उसी शहर के मयंक नाम के एक लड़के से उसकी दोस्ती हो गई। मयंक का प्रोफाइल अभय को बहुत पसंद आया था। दोनों के बीच मैसेजेस का आदान-प्रदान होना शुरू हो गया।

पढाई के लिए लिए गए फोन का प्रयोग अब दोस्ती और मनोरंजक वीडियोस देखने में होने लगा। यहाँ तक की क्लास करते हुए भी अभय का ध्यान मोबाइल स्क्रीन पर ही लगा रहता।

मयंक और अभय की दोस्ती भी गहरी होती गयी, यहाँ तक कि मयंक कई बार उसका फ़ोन भी रिचार्ज करा देता।

देखते-देखते उनकी फ्रेंडशिप को दो-तीन महीने बीत गए, पर अभी भी उनकी एक बार भी मुलाक़ात नहीं हुई थी।

फिर एक दिन मयंक ने अभय को एक जगह बुलाने के लिए कॉल की, ” यार एक बहुत अच्छी opportunity है, तू सुबह दस बजे Whatsapp किये पते पर आ जा, अब पढाई के साथ -साथ तू हर महीने 5000 रु भी कमा सकता है, और इसी बहाने हम दोनों पहली बार face to face मिल भी लेंगे.”

अभय की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था, दोस्त से मिलने की ख़ुशी और पैसा कमाने का अवसर मिलने की बात से वो फूला नहीं समा रहा था। अगले दिन वह सुबह जल्दी उठा और तैयार होकर मयंक के दिए पते की ओर बढ़ गया। वो जगह शहर से कुछ दूर थी, इसलिए अभय उधर जा रही एक बस पर सवार हो गया। एक घंटे के सफ़र के बाद आखिरकार वो पूछते-पाछते दिए हुए पते पर पहुंचा।

अभी वह दरवाजा खटखटाता की इससे पहले एक कार उसके पास आकर रुकी। उसमे से पैंताली-पचास साल का एक अधेड़ व्यक्ति बाहर निकला और बोला, “सुनो बेटा क्या तुम्हारा नाम अभय है?

“जी अंकल”, अभय बोला।

“मुझे मयंक ने भेजा है, दरअसल, अचानक मीटिंग का स्थान बदल गया है, आओ कार में बैठो मैं तुम्हे सही जगह ले चलता हूँ।”, व्यक्ति बोला।

अभय फौरन कार में बैठ गया और वे आगे बढ़ गए।

व्यक्ति ने अभय की केयर करते हुए उसे पीने के लिए फ्रूटी दी!

फ्रूटी पीने के करीब तीन घंटे बाद जब अभय की आँखें खुलीं तो उसने खुद को एक पार्क में लेटा हुआ पाया, उसे पेट के एक तरफ काफी दर्द महसूस हो रहा था, मोबाइल और पैसे भी गायब थे।

कुछ देर तक तो उसे समझ ही नहीं आया कि वो आखिर कार से यहाँ कैसे पहुँच गया। फिर उसने शर्ट उठा कर दर्द वाली जगह देखी तो वहां एक चीरा लगा हुआ था.

अभय का दिल तेजी से धड़कने लगा। वह समझ चुका था कि उसके साथ कुछ बहुत गलत हो चुका है।

वह फ़ौरन भाग कर डॉक्टर के पास गया।

पर डॉक्टर ने जो बात उसे बताई, उसे सुनकर उसके पैरों तले जमीन ही खिसक गई। उसके शरीर से एक किडनी गायब थी। अब उसकी “काटो तो खून नहीं” वाली हालत हो गई।

सोचने लगा, “क्या सपने लेकर गांव से शहर आया था। अब अपने पिताजी को क्या जवाब देगा।”

वह भागा-भागा पुलिस के थाने पहुंचा। वहां जाकर तो उसके सामने डिजिटल दुनिया की सारी सच्चाई सामने आ गई। यह जो फेसबुक पर मयंक का प्रोफाइल था वह कोई युवा नहीं बल्कि वही अधेड़ व्यक्ति था जिसने उसे कार में बैठाया था।

वह आकर्षक अकाउंट बनाकर अभय जैसे लोगों को, जो सफलता शॉर्टकट में चाहते थे और ऐसे छलावे पे विश्वाश करते थे, फांसता था। फिर धीरे-धीरे पर्सनल लाइफ में घुसकर उन्हें नौकरी का झांसा देकर बुलाता। उसके बाद शरीर के अंगों की चोरी करता था। ऐसे कितने सारे cases उसके नाम थे।

सोशल मीडिया पर सोशल ना होकर अगर अभय वास्तविक  दुनिया में social होता तो शायद ऐसी नौबत ही नहीं आती। स्क्रीन के पीछे का सच अब आईने की तरह साफ हो चुका था। इतनी बड़ी ठोकर लगने के बाद अब उसने मोबाइल स्क्रीन पर अपना समय ग्नावाना बंद कर दिया। वास्तविक और आभासी दुनिया के बीच का फर्क अब उसकी समझ में आ चुका था ,पर बहुत कुछ खोने के बाद।

दोस्तों, ऑनलाइन वर्ल्ड में किसी पर आँख मूँद कर विश्वास करना आपको मुसीबत में डाल सकता है। इसलिए सोशल मीडिया और इन्टरनेट को प्रयोग पूरी सावधानी के साथ करें ताकि आपको कभी अभय की तरह पछताना ना पड़े।

किसान की समस्या – महात्मा बुद्ध की कहानी

 

एक बार एक गांव में एक किसान अपने दुखों से बहुत दुखी था। किसी ने उसको बताया कि तुम अपने दुखों के समाधान के लिए गौतम बुद्ध की शरण में जाओ, वह तुम्हारे सभी दुखों का समाधान कर देंगे। यह सुनकर वह किसान बुद्ध की शरण में चल पड़ा।

वह गौतम बुद्ध के पास पहुंचा और कहा हे महात्मा मैं एक किसान हूं और में अपनी जीविका चलाने के लिए खेती करता हूं। लेकिन कई बारवर्षा पर्याप्त नही होती है और मेरी फसल बर्बाद हो जाती है। किसान ने आगे कहा में विवाहित हूं, मेरी पत्नी मेरा ख्याल रखती है और में उससे प्रेम करता हूं, लेकिन कभी कभी वह मुझे परेशान करती है। जिससे मुझे लगता है कि में उससे उकता गया हूं और मुझे लगता है कि अगर वह मेरे जीवन में नही होती तो कितना अच्छा होता।

गौतम बुद्ध उस किसान की बात शांतिपूर्वक सुनते रहें।

किसान ने आगे कहना जारी रखा और बोला मेरे बच्चे भी है वो अच्छे हैं, लेकिन कभी-कभी वो मेरी बात नही मानते और उस समय मुझे बहुत क्रोध आता है, लगता है वो मेरे बच्चे हैं ही नहीं। किसान ऐसी ही बातें बुद्ध से करता गया और उसने अपने सारे दुखों को एक-एक करके बताया।

गौतम बुद्ध ध्यानपूर्वक उस किसान की समस्याओं को सुनते गए, उन्होंने बीच में एक शब्द भी

 नही कहा। किसान अपनी समस्याएं बताता चला गया और आखिर में किसान के पास बताने को कोई भी समस्या नही बची।

अपना मन हल्का हो जाने के बाद वह चुप हो गया और बुद्ध के जवाब की प्रतीक्षा करने लगा लेकिन बुद्ध ने कुछ नही कहा।

किसान अब और सब्र नहीं कर सकता था, वह आवाज़ ऊँची करते हुए बोला, “क्या आप मेरी समस्याओं का समाधान नही करेंगे?”

“मैं तुम्हारी कोई सहायता नही कर सकता।”, बुद्ध ने उत्तर दिया।

किसान को अपने कानो पर यकीन नहीं हुआ, “ये आप क्या कह रहे हैं, लोग तो बोलते हैं कि आप सभी के दुखों का निवारण कर देते है, तो क्या आप मेरे दुखों का निवारण नही करेंगे?”

बुद्ध ने कहा, “सभी के जीवन में कठिनाइयां होती हैं। तुम्हारे जीवन में कोई नई कठिनाई नही है। ये कठिनाइयां तो सभी के जीवन में आती जाती हैं। कभी मनुष्य सुखी होता है तो कभी दुःखी। कभी उसे पराए अपने लगते है और कभी उसे अपने लोग पराए लगने लगते है। ये जीवन चक्र है, इनसे कोई नही निकल सकता है। वास्तविकता में हमारा जीवन कठिनाइयों से भरा हुआ है। मेरा, तुम्हारा और सभी लोगों का जीवन समस्याओं से ग्रसित है। इसलिए मैं इन समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता हूं।

यदि तुम किसी एक समस्या का उपाय कर भी लो तो उसके स्थान पर एक नई समस्या खड़ी हो जाएगी। यही जीवन का अटल सत्य है।

यह सुन कर किसान क्रोधित हो गया, बोला , “सब लोग कहते हैं  कि आप महात्मा हैं, मैं यहां एक आस लेकर आया था की आप मेरी सहायता करेंगे। अगर आप मेरी समस्याओं का समाधान ही नही कर सकते तो मेरा यहां आना व्यर्थ हुआ। इसका मतलब सभी लोग झूठ बोलते हैं, मैं बेकार ही आपके पास आया”

इतना बोलकर किसान उठ कर जाने लगा।

तभी बुद्ध ने कहा, “मैं तुम्हारी इन समस्याओं का समाधान तो नही कर सकता हूं, लेकिन हां मैं तुम्हारी एक दूसरी समस्या का समाधान कर सकता हूं।”

किसान ने आश्चर्य से कहा, “इन समस्याओं के अलावा दूसरी समस्या, भला वह कौन सी समस्या है?

बुद्ध ने कहा, वह यह कि –

तुम नही चाहते कि तुम्हारे जीवन में कोई समस्या हो।

इसी समस्या के कारण ही दूसरी कई समस्याओं का जन्म हुआ है। तुम इस बात को स्वीकार कर लो कि सभी के जीवन में समस्याएं होती हैं, कठिनाइयां होती हैं। तुम सोचते हो कि तुम इस दुनिया में सबसे ज्यादा दुःखी हो और तुम्हारे जितना कोई ओर दुःखी नहीं है!

तुम अपने आस पास देखो, क्या वो लोग तुमसे कम दुःखी हैं?

तुम्हें अपना दुःख बड़ा लगता है लेकिन जो लोग तुम्हारे आस-पास रहते हैं उनको उनका दुःख बड़ा लगता है। इस दुनिया में सभी को अपना दुःख बड़ा लगता है। चाहे दुःख छोटा हो या फिर बड़ा हो लेकिन वह जिसके साथ घट रहा है, उसके लिए वह दुःख बड़ा प्रतीत होता है।

अगर तुम ध्यानपूर्वक देखोगे तो समझ जाओगे कि यह जीवन सुख-दुःख से भरा हुआ है। इसको तुम कभी नही बदल सकते हो।

लेकिन हाँ, तुम सुख – दुःख से ऊपर अवश्य उठ सकते हो, यह तुम्हारे लिए संभव है।

सुख और दुःख को हम आने से रोक नही सकते है लेकिन सुख और दुःख का हम पर कोई प्रभाव न पड़े ऐसी व्यवस्था हम कर सकते हैं। और इसकी शुरुआत इस तथ्य को समझने के साथ शुरू होती है कि हम कुछ भी कर लें जीवन में सुख-दुःख आने ही आने हैं, लेकिन हमें उनसे विचलित नहीं होना चाहिए।

इसलिए आज से तुम यह चाहना छोड़ दो कि तुम्हारे जीवन में कोई समस्या ही ना आये, और तब तुम जीवन में आने वाले सुख-दुःख को स्वयं में समा सकोगे। तूफ़ान के मध्य में भी शांत रह सकोगे और हर्षोल्लास के शोर में भी संतुलित रह पाओगे।”

किसान बुद्ध की चरणों में गिर पड़ा! वह समझ चुका था कि अब उसे क्या करना है!

मित्रों, यह जीवन सुख-दुःख से भरा हुआ है। ऐसे में यह सोचन गलत है कि दुःख कभी आये ही नहीं। इस कहानी में भगवान् बुद्ध द्वारा कही गई बातें हमें दुःख से घबराने या सुख में अत्यंत उत्साहित होने की जगह एक संतुलित जीवन जीने का सन्देश देती हैं.  यदि आपको ये कहानी पसंद आई हो तो कृपया इसे अपने दोस्तों के साथ शेयर करें।

धन्यवाद,

भगवान् से क्या मांगते थे स्वामी विवेकानंद ? | प्रेरक प्रसंग

 

1884 में स्वामी विवेकानन्द के पिता जी का स्वर्गवास हुआ और उनके जाते ही घर की स्थिति खराब हो गयी। जिन लोगो से उनके पिता ने कर्जा लिया था वे बार-बार घर पर पैसे माँगने आने लगे।
और उनके पैसे चुकाने में घर की सारी पूँजी चली गयी। उनकी चाची ने उनके परिवार को घर से अलग कर दिया। अब 7 सदस्यों के परिवार का भार नरेन्द्र ( स्वामी विवेकानन्द ) के ऊपर आ पड़ा था।

नरेन्द्र उस समय लॉ के प्रथम वर्ष में था। पर घर की परस्थितियों को देखते हुए उसने Law छोड़ दिया और नौकरी की तलाश करने लगा। घर की परिस्थितियाँ इतनी खराब हो गयीं थी कि कभी-कभी दिन में एक बार ही भोजन हो पाता था। नरेन्द्र दिन-दिन भर कम्पनियों के और ऑफिसों के चक्कर लगता था, ताकि एक नौकरी मिल सके, जिससे घर का खर्चा चल सके। पर बहुत प्रयास करने पर भी कोई नौकर नहीं मिली।

नरेन्द्र उस समय B.A. पास था इसलिए अधिकारी वर्ग के पदों के लिये आवेदन करता था। पर जब उसे कोई नौकरी नही मिली, तो फिर उसने क्लर्क के पदों पर भी आवेदन करना प्रारम्भ कर दिया।  दिन- दिन भर भूखे-प्यासे पैदल चलकर उसने कई इंटरव्यू दिये, पर कहीं भी उसे एक नौकरी नहीं मिल सकी।

इसी तरह एक दिन जब वह इंटरव्यू  में रिजेक्देट होकर लौट रहा था तभी अचानक सड़क के किनारे बेहोश होकर गिर पड़ा।

जब उसे होश आया तब वह घर पर था, लेकिन अब उसका भगवान् पर से विश्वास उठ गया। उसने मन ही मन सोचा –

यदि भगवान् होते तो क्या इतने प्रयास करने पर भी सफलता न देते ?

यह बात किसी ने जाकर दक्षिणेश्वर के काली मन्दिर में श्री रामकृष्ण परमहंस को बतायी।

उन्होनें कहा, “नहीं। नहीं ऐसा नहीं हो सकता। तुम नरेन्द्र से मेरे पास आने के लिये कहना।”

कुछ समय बाद नरेन्द्र रामकृष्ण परमहंस के पास आये तो उन्होने मंदिर में माँ काली की प्रतिमा के समक्ष जाकर कुछ मांगने के लिये कहा।

नरेन्द्र मन्दिर में गया और ध्यानस्त बैठ कर आ गया।

परमहंस जी ने पूछा -“क्या माँगा” ?

उसने कहा – “ज्ञान और भक्ति”।

परमहंस जी ने कहा – “तुमने आपने घर की समस्या के बारे में तो कुछ माँगा ही नहीं। जाओ फिर से जाओ और अपनी बात कह कर आओ”।

ऐसा तीन बार हुआ। पर यह पूछने पर कि उसने क्या माँगा, एक ही जबाब मिलता –

“ज्ञान और भक्ति”

परमहंस जी ने कहा- तुम अपनी समस्या के बारे में क्यो नहीं कुछ माँगते ?

नरेन्द्र ने उत्तर दिया – “क्या ईश्वर से इतनी तुच्छ चीजे माँगूँ”।

परमहंस जी मुस्करा रहे थे और समझ चुके थे कि नरेन्द्र का ईश्वर से विश्वास नहीं उठा है। वह निराशा के कारण ऐसा बोल गया।

यही नरेन्द्र आगे चलकर स्वामी विवेकानन्द हुए और शिकागो में दिए अपने भाषण से सम्पूर्ण विश्व में विख्यात हुए.

—-

मित्रों, नरेन्द्र जिस दौर से गुजरा वह दौर बहुतों की ज़िन्दगी में आता है, पर ऐसा होने पर आप घबराये नहीं और निराश तो बिलकुल भी न हो। ईश्वर ने आपके लिये कुछ और सोच रखा है।

सोचिये अगर स्वामी विवेकानन्द की एक क्लर्क की नौकर लग जाती, तो क्या होता, आज हम जिस रूप में उन्हें जानते हैं, शायद उस रूप में नहीं जानते।

इसलिये ईश्वर पर विश्वास रखो और सदैव अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए प्रयासरत रहो.

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्वकर्मणि।। 2/ 47।।

 

 

 

चूहेदानी

 

बहुत समय पहले की बात है रहमान चाचा के यहाँ एक चूहा रहता था. हर दिन की तरह उस दिन भी बाज़ार से गाँव लौटते वक़्त चाचा झोले में कुछ सामान लेकर आये. झोले से बिस्कुट का पैकेट निकलते देख कर चूहे के मुंह में पानी आ गया, लेकिन ये क्या अगले ही पल उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गई, चाचा आज बाकी सामन के साथ एक चूहेदानी भी खरीद कर लाये थे.

चूहा फ़ौरन भाग कर मुंडेर पर बैठे कबूतर के पास गया और घबड़ा कर कहने लगा – ” यार, आज बड़ी गड़बड़ हो गई, चाचा मुझे मारने के लिए चूहे दानी लेकर आये हैं, मेरी मदद करो किसी तरह इस चूहेदानी को यहाँ से गायब कर दो!”

कबूतर मुस्कुराया और बोला, ” पागल हो गया है, भला मुझे चूहेदानी से क्या खतरा, मैं इस चक्कर में नहीं पड़ने वाला. ये तेरी समस्या है तू ही निपट.”

चूहा और भी निराश हो गया और मुर्गो के पास हांफता हुआ पहुंचा, ” भाई मेरी मदद करो, चाचा चूहेदानी लेकर आये हैं….”

मुर्गे दाना चुगने में मस्त थे. चूहे से कन्नी काटते हुए बोले, “अभी हमारा खाने का टाइम है, तू बाद में आना.”

अब चूहा भागा-भागा बकरे के पास पहुंचा और अपनी समस्या बताई.

बकरा जोर-जोर से हंसने लगा, “यार तू पागल हो गया है, चूहेदानी से तुझे खतरा है मुझे नहीं. और तेरी मदद करके मुझे क्या मिलेगा? मैं कोई शेर तो हूँ नहीं जो शिकारी मुझे जाल में फंसा लेगा और तू मेरा जाल कुतर कर मेरी जान बचा लेगा!”

और ऐसा कह कर बकरा जोर-जोर से हंसने लगा.

बेचारा चूहा उदास मन से अपने बिल में वापस चला गया.

रात हो चुकी थी, चाचा और उनका परिवार खा-पीकर सोने की तैयारी कर रहे थे तभी खटाक की आवाज़ आई. चचा की छोटी बिटिया दौड़कर चूहेदानी की ओर भागी, सभी को लगा कि कोई चूहा पकड़ा गया है. कबूतर, मुर्गे और बकरे को भी लगा कि आदत से मजबूर चूहा खाने की लालच में मारा गया.

लड़की पलंग के नीचे हाथ डालकर चूहेदानी खींचेने लगी, तभी हिस्स की आवाज़ आयी…. ये क्या चूहेदानी में चूहा नहीं बल्कि एक ज़हरीला सांप फंस गया था और उसने बिजली की गति से फूंफकार मारते हुए बिटिया को डस लिया.

बिटिया की चीख सुन सब वहां इकठ्ठा हो गए.  रहमान चाचा सर पर पैर रख कर पड़ोस में रहने वाले ओझा के यहाँ भागे.

ओझा ने कुछ तंत्र-मन्त्र किया और बिटिया के हाथ पर एक लेप लगाते हुए बोले, बच्ची अभी खतरे से बाहर नहीं है, मुझे फ़ौरन कबूतर का कंठ लाकर दो मैं उसे उबालकर एक घोल तैयार करूँगा जिसे पीकर यह पूरी तराह स्वस्थ हो जायेगी.

ये सुनते ही रहमान चाचा कबूतर को पकड़ लाये. ओझा ने बिना देरी किये कबूतर का काम तमाम कर दिया.

बिटिया की हालत सुधरने लगी.

अगले दिन कई नाते – रिश्तेदार बिटिया का हाल-चाल जानने के लिए इकट्ठा हो गए. चाचा भी बिटिया की जान बचने से खुश थे और इसी ख़ुशी में उन्होंने सभी को मुर्गा खिलाने की ठानी.

कुछ ही घंटों में मूढ़ों का भी काम तमाम हो गया.

ये सब देख कर बकरा भी काफी डरा हुआ था पर जब सभी मेहमान चले गए तो वो भी बेफिक्र हो गया.

पर उसकी ये बेफिक्री अधिक देर तक नहीं रह पाई.

चची ने रहमान चाचा से कहा, “अल्लाह की मेहरबानी से आज बिटिया हम सबके बीच है, जब सांप ने काटा था तभी मैंने मन्नत मांग ली थी कि अगर बिटिया सही-सलामत बच गई तो हम बकरे की कुर्बानी देंगे. आप आज ही हमारे बकरे को कुर्बान कर दीजिये.

इस तरह कबूतर, मुर्गे और बकरा तीनो मारे गए और चूहा अभी भी सही-सलामत था.

दोस्तों, इस कहानी से हमें ये सीख मिलती है कि जब हमारा दोस्त या पडोसी मुसीबत में हो तो हमें उसकी मदद करने की भरसक कोशिश ज़रूर करनी चाहिए. किसी समस्या को दूसरे की समस्या मान कर आँखें मूँद लेना हमें भी मुसीबत में डाल सकता है. इसलिए मुश्किल में पड़े मित्रों की मदद ज़रूर करें, ऐसा करके आप कहीं न कहीं खुद की ही मदद करेंगे.