मंगलवार, 5 अप्रैल 2022

नैतिक शिक्षा देती पंचतंत्र की 5 कहानियाँ

 

पंचतंत्र की पहली कहानी: घमंडी हाथी और चींटी

एक समय की बात है चन्दन वन में एक शक्तिशाली हाथी रहता था। उस हाथी को अपने बल पर बहुत घमंड था। वह रास्ते से आते जाते सभी प्राणीयों को डराता धमकाता और वन के पेड़-पौधों को बिना वजह नष्ट करता उधम मचाता रहता।

एक दिन उस हाथी नें रोज़ की तरह जंगल के सभी प्राणीयों को सताना शुरू किया कि तभी अचानक आकाश में बिजली चमकी और मूसलाधार बारिश होने लगी। तेज़ बारिश से बचने के लिए हाथी दौड़ कर एक बड़ी गुफा में जा छिपा।

गुफा के भीतर एक छोटी सी छीटी भी थी। उसे देखते ही हाथी हँसने लगा-

हाहा.हा..हा… तुम कितनी छोटी हो, तुम्हे तो मैं एक फूंक मरूँगा तो चाँद पर पहुँच जाओगी…मुझे देखो मैं चाहूँ तो पूरे पर्वत को हिला दूँ…तुम्हारा जीवन तो व्यर्थ है…

छोटी सी चीटी नें हाथी को घमंड ना करने को समझाया पर हाथी अपनी ताकत के मद में चूर था…वह लगातार चींटी का मजाक उड़ाता रहा और चींटी को डराने के लिए अपना पैर पटकने लगा…

हाथी ऐसा कर ही रहा था कि तभी बाहर से धड़ाम की जोरदार आवाज़ आई… पैर पटकने की वजह से एक बड़ा सा पत्थर गुफा के मुहाने पर आ गिरा।

अब हाथी के होश उड़ गए…वह पत्थर हटाने के लिए आगे बढ़ा पर अपनी पूरी ताकत लगा कर भी वह पत्थर को टस से मस नहीं कर पाया..
बारिश रुकते ही चीटी बोली, “देखो तुम मेरे छोटे होने का मज़ाक उड़ा रहे थे पर इस समय मैं अपने इसी छोटे आकर की वजह से ही इस गुफा से बाहर ज़िंदा जा सकती हूँ लेकिन तुम नहीं।”

और इतना कह कर चींटी अपने रास्ते चल देती है.

थोड़ी देर बाद चीटी जंगल में जा कर अन्य हाथियों को बुला लाती है और सब मिल कर गुफा के द्वार पर आ गिरा पत्थर हटा देते हैं और उस हाथी को गुफा के बाहर निकाल देते हैं।

हाथी निकलते ही चींटी से अपने व्यहार के लिए क्षमा मांगता है और उसके प्राण बचाने के लिए धन्यवाद देता है।

इस घटना से हाथी को यह बात समझ आ जाती है कि सभी प्राणीयों के साथ मिल-जुल कर रहने में ही भलाई है। और उस दिन के बाद वह हाथी कभी किसी प्राणी को नहीं सताता है।

Moral of the story: आपको दिखे या नहीं, हर किसी में कुछ न कुछ गुण होता है, इसलिए यदि ईश्वर ने आपको कोई काबिलियत दी है तो कभी भी उस पर घमंड ना करें, हर कोई किसी न किसी रूप में काबिल है।

पंचतंत्र की दूसरी कहानी: चार ब्राह्मण

एक गाँव में चार ब्राह्मण रहते थे। उनमे से तीन ब्राह्मणों ने अनोखी विद्याएँ सीख रखी थीं, जबकि एक को कुछ ख़ास नहीं पता था। इसी वजह से बाकी तीनो उसे अज्ञानी वो निरा मूर्ख समझते थे।

एक बार तीन विद्वान् ब्राह्मणों ने शहर जा कर कुछ धनोपार्जन करने का विचार बनाया। उन्हें जाता देखकर चौथा ब्राह्मण भी साथ जाने का आग्रह करने लगा।

“तुम हम विद्वानों के साथ जाकर क्या करोगे? तुम्हे तो कोई ऐसी विद्या भी नहीं आती जिससे तुम धनोपार्जन कर सको? जाओ लौट जाओ..”, तीनो ने उसे लगभग डांटते हुए कहा।

“मम्म… मैं…तुम लोगों के काम कर दिया करूँगा….कृपया मुझे ले चलो।”, चौथा ब्राह्मण आग्रह करते हुए बोला।

काम कराने की लालच में सभी उसकी बात मान गए और वो भी साथ-साथ चल पड़ा।

शहर जाते वक्त रास्ते में एक घना जंगल पड़ता है। चलते-चलते उन्हें एक जगह ढेर सारी हड्डियाँ बिखरी दिखाई पड़ती हैं। सभी वहीँ रुक जाते हैं और इस बात को ले कर विवाद हो जाता है की यह हड्डियाँ किस जानवर की हैं।

तभी एक ब्राहमण बोलता है, ” चलो, बेकार की बहस बंद करो, मैं अभी अपनी तंत्र विद्या से इन हड्डियों को जोड़ देता हूँ…”

और देखते-देखते एक शेर का कंकाल तैयार हो जाता है।

यह देख दूसरा ब्राह्मण अपनी विद्या कर प्रदर्शन कर सबको प्रभावित करना चाहता है और उस कंकाल में मांस व चमड़ी लगा देता है।

अब भला तीसरा ब्राह्मण कहाँ पीछे रहने वाला था, वह हँसते हुए बोला, “तुम सब ये क्या बचकानी हरकतें कर रहे हो? मैं दिखाता हूँ असली विद्या…मैं इस शेर में अभी प्राण फूंक इसे जीवित कर देता हूँ…”

और ऐसा कह कर वह मंत्रोचारण करने लगता है।

“ठहरो-ठहरो!”, चौथा ब्राह्मण जोर से चीखता है….” तुम ये क्या कर रहे हो? अगर ये शेर जीवित हो गया…”

अभी वो अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाता है कि मंत्रोचारण कर रहा ब्राह्मण उस पर गरज पड़ता है, “मूर्ख! अल्प-बुद्धि, विद्वानों के बीच अपनी जुबान दुबारा कभी मत खोलना..”

और वह पुनः मन्त्र पढने लगता है।

चौथा ब्राहमण समझ जाता है कि यहाँ कोई उसकी बात नहीं मानेगा…और वह तेजी से भाग कर एक पेड़ पर चढ़ जाता है।

उधर मन्त्र की शक्ति से शेर में प्राण आ जाते हैं।

शेर तो शेर है..हिंसक…घातक…प्राणनाशक….वह क्या जाने उसे किसने बनाया….क्यों बनाया…वह तो बस मारना और खाना जानता है…

देखते-देखते शेर ने तीनो ब्राह्मणों को मार डाला और अपना पेट भर घने जंगलों में ओझल हो गया।

चौथा ब्राहमण सही समय देखकर गाँव की तरफ वापस लौट गया…वह मन ही मन सोच रहा था,-

ऐसा ज्ञान किस काम का जो इन्सान की सूझ-बुझ और समझदारी को क्षीण कर दे।

Moral of the story: Bookish knowledge से कहीं अधिक ज़रूरी practical knowledge होता है। कभी भी अपनी पढ़ाई-लिखाई का घमंड नहीं करना चाहिए और अपने आगे दूसरों को मूर्ख नहीं समझना चाहिए।

पंचतंत्र की तीसरी कहानी: सुराही का जिन्न

एक गरीब मछुआरा बहुत परिश्रम कर के अपनी रोज़ी रोटी कमाता था। वह एक दिन में केवल चार बार समुद्र में जाल डाल कर मछ्ली पकड़ने के नियम पर चलता था। अपने उस नियम के कारण उसे कई बार घर पर खाली हाथ लौट आना पड़ता था। मछुवाराे की पत्नी भी अपने पति के इस नियम से परेशान थी।

रोज़ की तरह एक दिन मछुआरा अपना जाल ले कर समुद्र पर जा पहुंचा। उसने अपने नियमानुसार पहली बार जाल समुद्र में फेंका और थोड़ी देर बाद उसे पानी से ऊपर खींचा। उसने देखा की जाल में कंकड़ पत्थर और भुरभुरी हड्डियाँ फसी हुई थीं।

मछुआरे नें फिर प्रयास किया इस बार उसे कचरे से भरा हुआ एक ज़ंग खाया बक्सा मिला जिसकी कीमत कुछ भी नहीं थी।

तीसरी बार मछुआरे नें जब समुद्र में अपना जाल डाला तब उसे फिर से नाकामी हाथ लगी। अब मछुआरे की हिम्मत जवाब दे चुकी थी। वह आसमान की और निराशा भरी निगाहों से देखने लगा और अपनी बुरी किस्मत को कोसने लगा।

कुछ देर बात खुद को हिम्मत देते हुए उसने चौथी और आखरी बार अपना जाल समुद्र में फेंका।

इस बार जब उसने अपना जाल समुद्र से ऊपर खींचा तो उसने देखा की उसके जाल में कोई मछ्ली तो नहीं फसी पर एक बड़ी सी पीतल की प्राचीन सुराही फंसी थी। उसने जल्दी से उस सुराही को अपने थैले में भर लिया और अपना जाल समेट कर घर चला गया।

खाली हाथ लौटने पर हेमशा की तरह उसे थोड़ी देर अपनी पत्नी की जली-कटी बातें सुननी पड़ी\ उसके बाद वह चुपचाप अपने कमरे में चला गया और सुराही को देखने लगा। उत्सुकता वश जैसे ही उसने उस सुराही का ढक्कन खोला तो उसमें से धुंवा बाहर आने लगा और पल भर में एक विशाल काय जिन्न उसके सामने आ खड़ा हुआ।

सुराही से बाहर निकलते ही जिन्न बोला-

स्वामी, मैं आपका सेवक हूँ…आप जो कहेंगे मैं करूँगा लेकिन याद रखिये मैं कभी खाली नहीं बैठ सकता…यदि आप मुझे कोई काम नहीं बता पाए तो मैं फ़ौरन आपका वध कर दूंगा और हेमशा-हेमशा के लिए आज़ाद हो जाऊँगा।

मछुवारा बोला, “जाओ मेरे परिवार के लिए श्रेष्ठ भोजन की व्यवस्था करो!”

और पलक झपकते ही मायावी जिन्न उसके समक्ष स्वादिष्ट भोजन का ढेर लगा देता है।

मछुवारा घबरा जाता है कि इतनी जिन्न ने इतनी जल्दी ये काम कैसे कर दिया?

इस बार वह उसे बड़ा काम देता है, “जाओ मेरे रहने के लिए एक आलिशान महल तैयार करो!”

अभी मछुवारा ठीक से अपना आदेश देता भी नहीं है कि जिन्न वहां एक आलिशान महल खड़ा कर देता है।मछुवारा अब और भी घबरा जाता है उसे समझ ही नहीं आता कि जिन्न को ऐसा कौन सा काम दे जिसमे वो उलझा रहे।

उधर जिन्न मछुवाराे के सर पर खड़ा चीखता है, ” बताओ अब क्या करना है?”

तभी मछुवाराे को एक तरकीब सूझती है वह मुस्कुराते हुए कहता है, “जाओ महल के बीचो-बीच एक लम्बा -मोटा बांस गाड़ दो।”हो गया।” ,जिन्न बोलता है।

बहुत अच्छे अब जाओ उस बांस पे बार-बार चढ़ो-उतरो और जब तक मैं दोबारा नहीं बुलाता तब तक मत आना!

जिन्न मुंह लटकाया चला गया और मछुवारा अपने परिवार के साथ आराम से उस महल में रहने लगा।

Moral of the story: बुद्धि से बड़ी से बड़ी समस्या को सुलझाया जा सकता है।

पंचतंत्र की चौथी कहानी: तीन काम

एक बार दो गरीब दोस्त किसी नगर के सेठ के पास काम मांगने जाते हैं। कंजूस सेठ तुरंत उन्हे काम पर रख लेता है और पूरे साल काम करने पर साल के अंत में दोनों को 12-12 स्वर्ण मुद्राएँ देने का वचन देता है।

सेठ यह भी शर्त रखता है कि अगर उन्होंने काम ठीक से नहीं किया या किसी आदेश का उलंघन किया तो उस एक गलती के बदले 4 सुवर्ण मुद्रायेँ तनख्वाह से काट ली ।

दोनों दोस्त सेठ की शर्त मान जाते हैं और पूरे साल जी-तोड़ महेनत करते हैं और सेठ के हर एक आदेश का अक्षरश पालन करते हैं।

जब काम करते-करते एक साल पूरा होने को आता है तो दोनों सेठ के पास 12-12 स्वर्ण मुद्राएँ मांगने पहुँचते हैं।

मुद्राएँ मांगने पर सेठ बोलता हैं, “अभी साल का आखरी दिन पूरा नहीं हुआ है और मुझे तुम दोनों से आज ही तीन और काम करवाने हैं।”

  • पहला काम- छोटी सुराही में बड़ी सुराही डाल कर दिखाओ।
  • दूसरा काम- दूकान में पड़े गीले अनाज को बिना बाहर निकाले सुखाओ।
  • तीसरा काम- मेरे सर का सही-सही वजन बताओ।

“यह तो असंभव है!”, दोनों दोस्त एक साथ बोल पड़ते हैं।

“ठीक है तो फिर यहाँ से चले जाओ…इन तीन कामों को ना कर पाने के कारण मैं हर एक काम के लिए 4 स्वर्ण मुद्राएँ काट रहा हूँ…”

मक्कार सेठ की इस धोखाधड़ी से उदास हो कर दोनों दोस्त नगर से जाने लगते हैं। उन्हें ऐसे जाता देख एक चतुर पण्डित उन्हे अपने पास बुलाता है और पूरी बात समझने के बाद उन्हें वापस सेठ पास भेजता है।

सेठ के पास पहुँच दोनों मित्र बोलते हैं, “सेठ जी अभी आधा दिन बाकी है, हम आपके तीनो काम किये देते हैं।”

और तीनो दूकान के अन्दर घुस बड़ी सुराही को तोड़-तोड़ कर छोटी के अन्दर डाल देते हैं। सेठ मन मसोस कर रह जाता है पर कुछ कर नहीं पाता है।

इसके बाद दोनों गीले अनाज को दूकान के अन्दर फैला देते हैं।

“अरे, फैलाने भर से भला ये कैसे सूखेगा…इसके लिए तो धूप और हवा चाहिए…”, सेठ मुस्कुराते हुए कहता है।

“देखते जाइए…”, ऐसा कहते हुए दोनों मित्र हथौड़ा उठा आगे बढ़ जाते हैं।

इसके बाद दोनों मिलकर दूकान की दीवार और छत तोड़ डालते हैं….जिससे वहां हवा और धूप दोनों आने लगती है।

क्रोधित मित्रों को सेठ और उसके आदमी देखते रह जाते हैं…किसी की भी उन्हें रोकने की हिम्मत नहीं होती।

“अब आखिरी काम बचा होता है…”, दोनों मित्र तलवार ले कर सेठ के सामने खड़े हो जाते है और कहते हैं, “मालिक आप के सिर का सही सही वज़न तौलने के लिए इसे धड़ से अलग करना होगा। कृपया बिना हिले स्थिर खड़े रहें।”

अब सेठ को समझ आ जाता है कि वह गरीबों का हक इस तरह से नहीं मार सकता और बिना कोई और नाटक किये वह उन दोनों को 12 – 12 स्वर्ण मुद्रायेँ सौप देता है ।

Moral of the story: बेईमानी का फल हमेशा बुरा ही होता है।

पंचतंत्र की पांचवी कहानी: महामूर्ख नाई

एक नगर में बहुत ही दयालु पति-पत्नी रहते थे। वे आर्थिक रूप से संपन्न थे और पूजा-पाठ, दान-धर्म में बढ़-चढ़ कर हिसा लेते थे। उनके नेक व्यवहार की कीर्ति दूर-दूर तक थी और अक्सर उनके घर में मेहमानों का ताता लगा रहता था।

समय कभी एक सा नहीं रहता है। एक बार उनके ऊपर घोर विपत्ति आ जाती है और वे कंगाल हो जाते हैं। धीरे-धीरे सभी उनसे मुंह मोड़ लेते हैं और कुछ तो उन्हें अपमानित करने से भी बाज नहीं आते।

पति-पत्नी इसे अपने पिछले जन्मो के कर्म का दंड मान लेते हैं और दरिद्रता में अपना जीवन यापन करने लगते हैं। एक दिन उनके द्वार पर एक चमत्कारी भिक्षुक आता है और भिक्षा मांगने लगता है। घर में कुछ नहीं होता, पति-पत्नी असमंजस में पड़ जाते हैं कि भिक्षुक को क्या दान दें?

जब कुछ नहीं मिलता तो दंपत्ति घर में बचा मुट्ठी भर चावल भिक्षुक को दान कर देते हैं।

भिक्षुक अन्तर्यामी होता है, वह इस दान से अतिप्रसन्न हो जाता है और उनसे कहता है-

मैं कल सुबह तुम्हारे द्वार पर फिर आऊंगा…जैसे ही मैं दरवाजा खट-खटाउ तुम दरवाजा खोलना और मेरे सर पर डंडे से प्रहार करने लगना…ऐसा करने से मेरे सर के सारे बाल स्वर्ण में परिवर्तित हो भूमि पर गिर जायंगे और तुम लोग उसे एकत्र कर पुनः धनवान बन जाओगे।

अगले दिन जब भिक्षुक आया तब पति-पत्नी ने ऐसा ही किया। भिक्षुक की बात सच निकली उसके सारे बाल स्वर्ण में बदल गए और एक बार फिर दंपत्ति पहले की तरह धनवान हो गए।

भिक्षुक के जाते ही सड़क के उस पार के बच्चे का बाल बना रहा नाई यह सब देख रहा होता है। वह मन ही मन सोचता है—” अच्छा तो ये है इनके धनवान होने का राज…ऐसे तो मैं भी धनवान बन सकता हूँ…”

और ऐसा सोचकर वह शहर के एक जाने-माने भिक्षुक के पास जाता है और अगले दिन सुबह-सुबह उन्हें अपने घर भोजन पर आमंत्रित करता है। प्रातः काल होते ही एक भिक्षुक नाई के द्वार पर पहुँच दरवाजा खटखटाता है।

नाई तो मानो इसी ताक में बैठा रहता है। वह फ़ौरन दरवाजा खोलता है और भिक्षुक के सर पर प्रहार करने लगता है।
देखते-देखते भिक्षुक लहू-लुहान हो जाता है।

खून देखकर नाई के होश उड़ जाते है…वह समझ नहीं पाता है कि ये सब क्या हो रहा है???

भिक्षुक नाई के इस व्यवहार से क्रोधित हो राजा से उसकी शिकायत कर देता है और राजा नाई को पागलखाने भिजवा देता है।

Moral of the story: किसी का अँधा अनुसरण नहीं करना चाहिए वरना बाद में पछताना पड़ता है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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