गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

जामुन का पेड़! | समय के साथ बदलने की सीख देती कहानी

 जंगल के बीचो बीच जामुन का एक बहुत पुराना वृक्ष था. पीढ़ियों से गिलहरियों का एक परिवार उस वृक्ष पर रहता आ रहा था.

वह वृक्ष उन्हें हर वो चीज देता आ रहा था जो जीने के लिए ज़रूरी थी…खाने के लिए फल, रहने के लिए अपने खोखले तनों में आसरा और खतरनाक पक्षीयों और जानवरों से सुरक्षा. यही वजह थी कि आज तक गिलहरियों के कुनबे में से किसी ने कहीं और जाने की नहीं सोची थी.

लेकिन अब परिस्थितियां बदल रहीं थीं… हर चीज जो शुरू हुई है वो ख़त्म भी होती है…अब जामुन के पेड़ का भी अंत निकट था…उसकी मजबूत जडें अब ढीली पड़ने लगी थीं… जामुन के फलों से लदे रहने वाले उसे पेड़ पर अब मुश्किल से ही जामुन खाने को मिल रहे थे.

यह एक आपात स्थिति थी और गिलहरी परिवार ज्यादा दिनों तक इसकी अनदेखी नहीं कर सकता था… अंततः एक मीटिंग बुलाई गयी.

सबसे बुजुर्ग होने के कारण अकड़ू गिलहरी ने मीटिंग की अध्यक्षता की और अपनी बात रखते हुए कहा, “मित्रों ये पेड़ ही हमारी दुनिया है… यही हमारा अन्न दाता है…इसने सदियों से हमारे पूर्वजों का पेट पाला है… हमारी रक्षा की है…आज भले ही इसपर फल आने कम हो गए हैं… इसकी जडें कमजोर पड़ गयी हैं पर फिर भी यह हम सबको आश्रय देने के लिए पर्याप्त है… और भगवान की कृपा हुई तो क्या पता ये कुछ दिनों में ये वापस ठीक हो जाए? अतः हम सबको यहीं रहना चाहिए और ईश्वर की प्रार्थना करनी चाहिए.”

सभी गिलहरियों ने अकड़ू की हाँ में हाँ मिलायी लेकिन गिल्लू गिलहरी से रहा नहीं गया और उसने हाथ उठाते हुए कहा, “मुझे कुछ कहना है.”
“क्या कहना है? हम भी तो सुनें”, अकड़ू कुछ अकड़ते हुए बोला.

“क्यों न हम एक नया पेड़ तलाशें और अपना परिवार वहीँ ले चलें… क्योंकि इस पेड़ का अंत निकट है, हो सकता है हम कुछ महीने और यहाँ काट लें…पर उसके बाद क्या? हमें कभी न कभी तो इस पेड़ को छोड़ना ही होगा.”

“बेकार की बात करना छोडो गिल्लू… नए खून के जोश में तुम ये भूल रहे हो कि इस पेड़ के बाहर कितना खतरा है… जो कोई भी यहाँ से जाने की सोचेगा उसे बाज, लोमड़ी या कोई अन्य जानवर मार कर खा जाएगा… और भगवान पर भरोसा भी तो कोई चीज होती है !” ,अकड़ू ने ऊँची आवाज़ में गिल्लू को समझाया.

“चाचा, खतरा कहाँ नहीं है… सच कहूँ तो इस समय नया घर खोजने का खतरा ना उठाना  ही हमारे परिवार के लिए सबसे खतरनाक चीज है…और जहाँ तक भगवान पर भरोसे की बात है तो अगर हम उस पर इस मरते हुए पेड़ में जान डालने का भरोसा कर सकते हैं तो नया घर खोजते वक़्त हमारी जान की रक्षा करने का भरोसा क्यों नहीं दिखा सकते…. आप लोगों को जो करना है करिए मैं तो चला नया घर ढूँढने!”, और ऐसा कहते हुए गिल्लू जामुन का पेड़ छोड़ कर चला गया.

गिल्लू के जाने के कई दिनों बाद तक उसकी कोई खबर नहीं आई. इस पर अकड़ू सबको यही कहता फिरता, “मैंने मना किया था… बाहर जान का खतरा है… पर वो सुनता तब तो… मारा गया बेकार में..”

बाकी गिलहरियाँ अकड़ू की बात सुनतीं पर समय के साथ-साथ उस धराशायी हो रहे पेड़ पर रहना मुश्किल होता जा रहा था. इसलिए गिलहरी परिवार ने एक और मीटिंग बुलाई. इस बार परिवार दो हिस्सों में बंट गया कुछ गिलहरियाँ गिल्लू की राह पर चलते हुए खतरा उठाने को तैयार हो गयीं और बाकी सभी अकड़ू की राह पर चलते हुए कोई खतरा नहीं उठाना चाहती थीं.

कुछ एक महीने और बीते, जामुन के पेड़ पर फल गायब हो चुके थे… उस पर रह रही गिलहरियाँ बिलकुल कमजोर हो चुकी थीं और अब उनमे कुछ नया करने की हिम्मत भी नहीं बची थी… धीरे-धीरे अकड़ू और बाकी गिलहरियाँ मरने लगीं और वहां से करीब 100 मीटर की दूरी पर गिल्लू और बाकी गिलहरियाँ एक दुसरे जामुन के पेड़ पर हंसी-ख़ुशी अपना जीवन जी रही थीं.

दोस्तों, हम सभी किसी न किसी जामुन के पेड़ पर बैठे हुए हैं… हम जिस भी industry में हैं…जो भी business कर रहे हैं वह धीरे-धीरे obsolete हो रहा है या उसे करने का तरीका तेजी से बदल रहा है… even सरकारी नौकरियां भी अब पहले की तरह नहीं रहीं. ऐसे में अगर हम अकड़ू की तरह बदलाव को resist करेंगे…बदल रही conditions को ignore करेंगे और खुद को नयी परिस्थितियों के हिसाब से नहीं ढालेंगे तो बहुत जल्द हमारा अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा.

For example: Nokia कभी मोबाइल फोंस में world leader था पर उसने खुद को smart phones के हिसाब से तैयार नहीं किया और उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया.

हमें गिल्लू की तरह proactive होना चाहिए और मुसीबत सर पर आने से पहले ही उससे बचने के उपाय करने चाहिए…हमें अपनी स्किल्स अपने काम करने के तरीके को changing circumstances के अनुसार upgrade करना चाहिए वरना बाद में उन गिलहरियों की तरह ना हमारे पास ऐसा करने की हिम्मत बचेगी और ना ही ताकत.

 

मिट्टी का दिल | क्रोध पर कहानी

 पंकज एक गुस्सैल लड़का था. वह छोटी-छोटी बात पर नाराज़ हो जाता और दूसरों से झगड़ा कर बैठता. उसकी इसी आदत की वजह से उसके अधिक दोस्त भी न थे.

पंकज के माता-पिता और सगे-सम्बन्धी उसे अपना स्वभाव बदलने के लिए बहुत समझाते पर इन बातों का उसपर कोई असर नहीं होता.

एक दिन पंकज के पेरेंट्स को शहर के करीब ही किसी गाँव में रहने वाले एक सन्यासी बाबा का पता चला जो अजीबो-गरीब तरीकों से लोगों की समस्याएं दूर किया करता था.

अगले दिन सुबह-सुबह वे पंकज को बाबा के पास ले गए.

बाबा बोले, “जाओ और चिकनी मिटटी के दो ढेर तैयार करो.

पंकज को ये बात कुछ अजीब लगी लेकिन माता-पता के डर से वह ऐसा करने को तैयार हो गया.

कुछ ही देर में उसने ढेर तैयार कर लिया.

बाबा बोले, “अब इन दोनों ढेरों से दो दिल तैयार करो!”

पंकज ने जल्द ही मिटटी के दो हार्ट शेप तैयार कर लिए और झुंझलाते हुए बोला, “हो गया बाबा, क्या अब मैं अपने घर जा सकता हूँ?”

बाबा ने उसे इशारे से मना किया और मुस्कुरा कर बोले, “अब इनमे से एक को कुम्हार के पास लेकर जाओ और कहो कि वो इसे भट्टी में डाल कर पका दे.”

पंकज को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि बाबा करना क्या चाहते हैं पर अभी उनकी बात मानने के अलावा उसके पास कोई चारा न था.
दो-तीन घंटे बाद पंकज यह काम कर के लौटा.

“यह लो रंग और अब इस दिल को रंग कर मेरे पास ले आओ!”, बाबा बोले.

“आखिर आप मुझसे कराना क्या चाहते हैं? इन सब बेकार के टोटकों से मेरा गुस्सा कम नहीं हो रहा बल्कि बढ़ रहा है!”, पंकज बड़बड़ाने लगा.

बाबा बोले, “बस पुत्र यही आखिरी काम है!”

पंकज ने चैन की सांस ली और भट्टी में पके उस दिल को लाल रंग से रंगने लगा.रंगे जाने के बाद वह बड़ा ही आकर्षक लग रहा था. पंकज भी अब कहीं न कहीं अपनी मेहनत से खुश था और मन ही मन सोचा रहा था कि वो इसे ले जाकर अपने रूम में लगाएगा.

वह अपनी इस कृति को बड़े गर्व के साथ बाबा के सामने लेकर पहुंचा.

पहली बार उसे लग रहा था कि शायद बाबा ने उससे जो-जो कराया ठीक ही कराया और इसकी वजह से वह गुस्सा करना छोड़ देगा.
“तो हो गया तुम्हारा काम पूरा?”, बाबा ने पूछा.

“जी हाँ, देखिये ना मैंने खुद इसे लाल रंग से रंगा है!”, पंकज उत्साहित होते हुए बोला.

“ठीक है बेटा, ये लो हथौड़ा और मारो इस दिल पर.”, बाबा ने आदेश दिया.

“ये क्या कह रहे हैं आप? मैंने इतनी मेहनत से इसे तैयार किया है और आप इसे तोड़ने को कह रहे हैं?”, पंकज ने विरोध किया.
इस बार बाबा गंभीर होते हुए बोले, “मैंने कहा न मारो हथौड़ा!”

पंकज ने तेजी से हथौड़ा अपने हाथ में लिए और गुस्से से दिल पर वार किया.

जिस दिल को बनाने में पंकज ने आज दिन भर काम किया था एक झटके में उस दिल के टुकड़े-टुकड़े हो गए.

“देखिये क्या किया आपने, मेरी सारी मेहनत बर्बाद कर दी.”

बाबा ने पंकज की इस बात पर ध्यान न देते हुए अपने थैले में रखा मिट्टी का दूसरा दिल निकाला और बोले, “चिकनी मिट्टी का यह दूसरा दिल भी तुम्हारा ही तैयार किया हुआ है… मैं इसे यहाँ जमीन पर रखता हूँ… लो अब इस पर भी अपना जोर लगाओ…”

पंकज ने फ़ौरन हथौड़ा उठाया और दे मारा उस दिल पर.

पर नर्म और नम होने के कारण इस दिल का कुछ ख़ास नहीं बिगड़ा बस उसपर हथौड़े का एक निशान भर उभर गया.

“अब आप खुश हैं… आखिर ये सब कराने का क्या मतलब था… मैं जा रहा हूँ यहाँ से!”, पंकज यह कह कह कर आगे बढ़ गया.

“ठहरो पुत्र!,” बाबा ने पंकज को समझाते हुए कहा, “जिस दिल पर तुमने आज दिन भर मेहनत की वो कोई मामूली दिल नहीं था… दरअसल वो तुम्हारे असल दिल का ही एक रूप था.

तुम भी क्रोध की भट्टी में अपने दिल को जला रहे हो… उसे कठोर बना रहे हो… ना समझी के कारण तुम्हे ऐसा करना ताकत का एहसास दिलाता है… तुम्हे लगता है की ऐसा करने से तुम मजबूत दिख रहे हो… मजबूत बन रहे हो… लेकिन जब उस हथौड़े की तरह ज़िंदगी तुम पर एक भी वार करेगी तब तुम संभल नहीं पाओगे… और उस कठोर दिल की तरह तुम्हारा भी दिल चकनाचूर हो जाएगा!

समय है सम्भल जाओ! इस दूसरे दिल की तरह विनम्र बनो… देखो इस पर तुम्हारे वार का असर तो हुआ है पर ये टूट कर बिखरा नहीं… ये आसानी से अपने पहले रूप में आ सकता है… ये समझता है कि दुःख-दर्द जीवन का एक हिस्सा है और उनकी वजह से टूटता नहीं बल्कि उन्हें अपने अन्दर सोख लेता है…जाओ क्षमाशील बनो…प्रेम करो और अपने दिल को कठोर नहीं विनम्र बनाओ!”

पंकज बाबा को एक टक देखता रह गया. वह समझ चुका था कि अब उसे कैसा व्यवहार करना है!

भगवान राम के जीवन से जुड़े 5 प्रेरक प्रसंग

 अपने पिता महाराज दशरथ की आज्ञा पाकर श्रीराम सीता मैया और लक्षमण जी के साथ 14 वर्ष का वनवास काटने के लिए अयोध्या से प्रस्थान कर गए. इसके बाद वे प्रयाग (इलाहाबाद), चित्रकूट, पंचवटी ( नासिक ), दण्डकारण्य, लेपक्षी, किश्किन्दा, रामेश्वरम, आदि स्थानों पर रहे और इस दौरान उनके साथ कई प्रसंग घटे.

प्रसंग #1 –  शूर्पणखा की नाक काटना

जब भगवान् राम पंचवटी में रह रहे थे तभी एक दिन रावण की बहन शूर्पणखा एक सुंदरी का रूप धारण कर उनके पास आई और उनके दिव्य स्वरुप से मोहित हो कर उनसे विवाह करने के लिए कहने लगी.

इस पर श्रीराम ने अपनी पतिव्रता पत्नी सीता के बारे में बताया और कहा कि वह उनके अनुज लक्ष्मण के पास जाए.

जब शूर्पणखा ने लक्षमण जी के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा तो वह बोले, ” हे सुंदरी! मैं तो भगवान् राम का दास हूँ यदि तुमने मुझसे विवाह किया तो तुम्हे भी उनकी दासी बनना पड़ेगा. और यह तो तुम्हारे सम्मान के विरुद्ध होगा. तुम राम भैया के पास जाओ वही सबके स्वामी हैं वही सबकुछ करने में समर्थ हैं.

यह सुनकर शूर्पणखा क्रोध से लाल हो गयी और रामजी से बोली, “शायद तुम्हे मेरी असीम शक्ति का ज्ञान नहीं है, जो तुम मेरे निवेदन को ठुकरा कर मेरा उपहास कर रहे हो.”

और ऐसा कह कर वह अपने असली रूप में आ गयी और सीता मैया को खाने के लिए दौड़ी.

यह देख श्री राम ने लक्षमण को उसे दण्डित करने का संकेत दे दिए और लक्षमण जी ने अपनी तलवार से उसके नाक-कान काट दिए.

प्रसंग #2 – खर-दूषण से युद्ध

नाक-कान कटने के बाद शूर्पणखा खून से लथपथ अपने भाइयों खर-दूषण के पास दौड़ी गयी और खर से बोली, “भाई! धिक्कार है तुम्हारे बल और पराक्रम पर. आज तुम्हारे राज्य में साधारण मनुष्यों की हिम्मत इतनी बढ़ गयी है कि उन्होंने मेरा ये हाल करने का दुःसाहस कर दिया है.”
और शूर्पणखा ने अपने साथ घटी घटना बता दी.

यह सुन कर खर क्रोधित हो उठा और तत्काल अपने भाई दूषण और 14 हज़ार राक्षसों की सेना लेकर राम-लक्षमण पर आक्रमण करने के लिए निकल पड़ा. उसकी इस विशाल सेना में एक से बढ़ कर एक पराक्रमी व दिव्यास्त्रों से सुसज्जित राक्षस मौजूद थे.

उनके आने का कोलाहल सुनकर श्रीराम ने लक्षमण जी से सीता मैया को किसी सुरक्षित स्थान पर ले जाने को कहा और स्वयं अपना धनुष और अक्षयबाण वाले दो तरकस बाँध कर तैयार हो गए.

जल्द ही राक्षस वहां आ पहुंचे और नाना प्रकार के अश्त्रों-शश्त्रों से उन पर वार करने लगे. पर श्रीराम ने एक-एक कर के उनके सारे अश्त्र -शश्त्र काट डाले और सहस्त्रों बाणों से खर-दूषण समेत समस्त राक्षसों का संहार कर दिया.

इस प्रकार रघुवंशियों में श्रेष्ठ श्रीराम ने आधे पहर में ही इतनी विशाल और सूरवीरों से भरी सेना को अकेले ही समाप्त कर दिया.

प्रसंग #3 – जटायु पर कृपा

जब मारीच की मदद से रावण सीता मैया का हरण कर अपने पुष्पक विमान से उन्हें लंका ले जा रहा था तब उनकी वेदनापूर्ण पुकार सुन गिद्धराज जटायु उन्हें बचाने के लिए तत्पर हो गया और वायु वेग से रावण की ओर उड़ चला.

जटायु ने अपनी पूरी शक्ति से रावण पर आक्रमण किया और उसे नीचे गिरा दिया. पर अगले ही क्षण रावण ने अपनी कटार से जटायु के पंख काट दिए और पुनः सीताजी को लंका की ओर ले उड़ चला.

उधर जब राम-लक्षमण को सीता जी आश्रम में नहीं मिलीं तो वे फ़ौरन उन्हें ढूँढने निकले. मार्ग में उन्हें घायल अवस्था में जटायु मिला. उसने सिर्फ भगवान् के दर्शन करने के लिए अपने प्राणों को रोक रखा था.

श्रीराम ने रक्त में डूबे जटायु के सिर पर अपना हाथ फेरा. उनका दर्शन व स्पर्श पा कर जटायु की पीड़ा जाती रही और वह बोला, “हे नाथ! लंकापति रावण ने मेरी ये दशा की है. उसने सीता मैया का हरण कर दक्षिण दिशा की ओर रुख किया है… बस यही सूचना देने के लिए मैं अभी तक जीवित था. कृपया मुझे यह शरीर छोड़ने की आज्ञा दीजिये.”

भगवान् राम द्रवित होते हुए बोले-

“हे तात! अपने परहित में अपने तन का त्याग किया है, निश्चित ही आपको मेरे परमधाम की प्राप्ति होगी.”

और तत्काल ही जटायु चतुर्भुज रूप धारण कर भगवान् की स्तुति करते हुए परमधाम को चले गये

प्रसंग #4 – शबरी की भक्ति

सीता जी की खोज करते हुए श्रीराम भक्तिमती शबरी के आश्रम पहुंचे. उन्हें देखते ही शबरी आनंद विभोर हो गयी, वह भगवन के चरणों में गिर पड़ी और उसके नेत्रों से आंसुओं की धारा बहने लगी.

इसके बाद उसने राम-लक्ष्मण की पूजा की और खाने के लिए फल प्रस्तुत किये. नोट: कई जगह शबरी द्वारा श्रीराम को अपने झूठे बेर खिलाने की बात आती है, पर इस बात को लेकर सभी एकमत नहीं हैं.

शबरी ने बताया कि वह हजारों वर्षों से इस आश्रम में रह रही है और उसके गुरु महर्षि मतंग ने ब्र्हम्लोक जाने से पहेल उसे बताया था कि सनातन परमात्मा ने राक्षसों का संहार करने के लिए और ऋषियों की रक्षा करने के लिए महाराज दशरथ के यहाँ पुत्र रूप में अवतार लिया है और वह शीघ्र तुम्हे दर्शन देने के लिए यहाँ आयेंगे.

शबरी बोली, “हे रघुनन्दन! मैं नीच कुल में उत्पन्न एक अनपढ़ गंवार नारी हूँ. मैं तो आपके दासों का दास बनने योग्य भी नहीं हूँ, फिर भी आपने मुझे दर्शन दिए, मैं नहीं समझ पा रही कि मैं कैसे आपकी स्तुति करूँ.”

भगवान् बोले-

“हे भामिनी! स्त्री-पुरुष, नाम, जाति और आश्रम – ये कोई भी मेरी कृपा के कारण नहीं हैं. मैं तो बस अपने भक्तों के वश में हूँ, और जो मेरी भक्ति करता है वह स्वतः ही मेरी कृपा का पात्र बन जाता है. इसीलिए मैं तुम्हारे पास आया हूँ. मेरे इस दर्शन से तुम्हारी मुक्ति हो जायेगी.”

इसके बाद शबरी ने रावण द्वारा सीता हरण के विषय में बताया और वनराज सुग्रीव से मित्रता करने की बात कही. और फिर शबरी ने श्रीराम के समक्ष ही खुद को योगाग्नि में भस्म कर परमधाम की प्राप्ति की.

 

प्रसंग #5 – बालि वध

बालि सुग्रीव का बड़ा भाई था. वह अत्यंत बलशाली था और उसे आशीर्वाद प्राप्त था कि जो कोई भी उससे लड़ने आएगा उसकी आधी शक्ति क्षीण हो जायेगी और बालि को प्राप्त हो जायेगी.

बालि ने सुग्रीव की पत्नी पर कुदृष्टि डाली थी और उस पर अपना आधिपत्य जमा सुग्रीव को राज्य से निकाल दिया था.

श्रीराम से मित्रता होने और उनका आश्वासन मिलने के बाद सुग्रीव ने पुनः बालि को युद्ध के लिए ललकारा. इस दौरान श्रीराम एक वृक्ष के पीछे खड़े हो बालि का वध करने का अवसर खोजने लगे.

पर दोनों भाइयों की मुख व काया एक सामान होने के कारण वे समझ ना सके कि किस पर तीर छोड़ा जाए और इस कारण से सुग्रीव को एक बार फिर युद्ध में परास्त हो वापस आना पड़ा.

पर कुछ ही देर में वह पुनः फूलों की एक माला पहन बालि को लकारने पहुंचा. इस बार श्रीराम ने दोनों भाइयों में आसानी से अंतर कर लिया और बालि पर अपना बाण छोड़ दिया.

बालि धराशायी हो गया और तिरस्कार पूर्वक बोला, “हे राम! मैंने आपका क्या बिगाड़ा था जो आपने इस तरह मुझे मारा? एक क्षत्रीय होने के नाते आप सामने से युद्ध करते तब आपका यशगान होता, बताइये इस तरह मुझे मार कर आपको कौन सा पुण्य मिल गया?”

तब श्रीराम ने कहा-

“मैं धर्म की रक्षा करने के लिए ही इस लोक में धनुष धारण कर विचरण कर रहा हूँ. छोटे भाई की स्त्री, बहन, पुत्रवधू और कन्या – ये चारों सामान ही हैं. जो मूढ़ इनमे से एक के साथ भी रमण करता है; राजा का कर्तव्य है कि वह उसे मृत्युदण्ड दे. इसीलिए मैंने तेरे साथ युद्ध नहीं किया अपितु तुझे दण्ड दिया है.”

इसके बाद बालि ने अपनी करनी के लिए क्षमा मांगी और अपने प्राण त्याग दिए और इन्द्र्रूप में देवलोक चला गया.

 

भगवान् महावीर से जुड़ी 3 बेहद रोचक कहानियां

 

ज्ञान की खोज में महावीर नंगे पाँव एक स्थान से दूसरे स्थान विचरण करते हुए घनघोर तपस्या कर रहे थे. एक बार वह श्वेताम्बी नगरी जा रहे थे जिसका रास्ता एक घने जंगल से होकर गुजरता था, जिसमे चंडकौशिक नाम का एक भयंकर सर्प रहता था.उस सर्प के बारे में प्रसिद्द था कि वह सदा क्रोध में रहता था और उसके देखने मात्र से ही पक्षी, जानवर या इंसान मृत हो जाते थे.

जब महावीर उस जंगल की ओर बढे तो ग्रामीणों ने उन्हें चंडकौशिक के बारे में बताया और उधर न जाने का निवेदन किया.

पर अहिंसा के मार्ग पर चलने वाले महावीर तो भयरहित थे. उन्हें किसी के प्रति नफरत नहीं थी, और वे डर और नफरत को स्वयम के प्रति हिंसा मानते थे. उनके चेहरे पर एक तेज था और वे साक्षात करुणा की मूर्ती थे.

उन्होंने गाँव वालों को समझाया कि वे भयभीत न हों और जंगल में प्रवेश कर गए.

कुछ देर चलने के बाद जंगल की हरियाली क्षीण पड़ने लगी और भूमि बंजर नज़र आने लगी. वहां के पेड़ पौधे मृत हो चुके थे और जीवन का नामोनिशान नहीं था.

महावीर समझ गए कि वह चंडकौशिक के इलाके में आ चुके हैं. वे वहीँ रुक गए और ध्यान की मुद्रा में बैठ गए. महावीर के ह्रदय से प्रत्येक जीव के कल्याण के लिए शांति और करुणा बह रही थी.

महावीर की आहट सुन चंडकौशिक फौरन सतर्क हो गया और अपने बिल से बाहर निकला. महावीर को देखते ही वह क्रोध से लाल हो गया

और मन ही मन सोचा, “इस तुच्छ मनुष्य की यहाँ तक आने की हिम्मत कैसे हुई?”

वह महावीर की ओर अपना फेन ऊँचा कर फुंफकारने लगा…हिस्स…हिस्स..

पर महावीर तो शांतचित्त हो अपनी ध्यान मुद्रा में बैठे रहे और जरा भी विचलित नहीं हुए.

यह देख चंडकौशिक और भी क्रोधित हो गया और उनकी ओर बढ़ते हुए अपना फन हिलाने लगा.

महावीर अभी भी शांति से बैठे रहे और न भागने की कोशिश की ना भयभीत हुए. सर्प का क्रोध बढ़ता जा रहा था, उसने फ़ौरन अपना ज़हर महावीर के ऊपर उड़ेल दिया.

पर ये क्या महवीर तो अभी भी ध्यानमग्न थे, उस घटक विष का उनपर कोई असर नही हो रहा था.

चंडकौशिक को विश्वास नहीं हो रहा था कि कोई मनुष्य उसके विष से बच सकता है, वह बिजली की गति से आगे बढ़ा और महवीर के अंगूठे में अपने दांत गड़ा दिए.

पर ये क्या महवीर अभी भी ध्यानमग्न थे और उनके अंगूठे से खून की जगह दूध बह रहा था.

अब महावीर ने अपनी आँखें खोली. वह शांत थे उनके मुख पर न कोई भय था ना ही क्रोध. वे चंडकौशिक की आँखों में देखते हुए बोले-

उठो!उठो! चंडकौशिक सोचो तुम क्या कर रहे हो!

उनके वाणी में प्रेम और स्नेह था.

चंडकौशिक ने इससे पहले कभी इतना निर्भय और वात्सल्यपूर्ण प्राणी नहीं देखा था, वह शांत हो गया. अचानक ही उसे अपने पिछले जन्म याद आने लगे, अपने क्रोध और अभिमान के कारण आज वह जिस स्थिति में पहुँच गया था वह उसे ज्ञात हो गया. अचानक आये इस ज्ञान से उसका ह्रदय परिवर्तन हो गया वह प्रेम और अहिंसा का पुजारी बन गया.

महावीर के जाने के बाद उसने चुपचाप अपना सिर बिल के अन्दर कर लिया जबकि उसका बाकी का शरीर बहार ही था.

धीरे-धीरे यह बात सभी को ज्ञात हो गयी कि चंडकौशिक बदल गया है. बहुत से लोग उसे नाग-देवता मान कर दूध, घी इत्यादि से पूजने लगे तो कई लोग जिन्होंने उसके विष के कारण अपने प्रियजन खोये थे उस पर ईंट-पत्थर फेंकने लगे.

चंडकौशिक न क्रोधित हुआ न किसी का विरोध नहीं किया और लुहू-लुहान उसी अवस्था में पड़ा रहा. रक्त, दूध, मिष्टान आदि कि वजह से जल्द ही वहां चींटियों के झुण्ड के झुण्ड आ पहुंचे. चींटियों के काटने के बावजूद वह अपने स्थान से नहीं हिला कि कहीं कोई चींटी दब कर मर ना जाए.

अपने इस आत्म संयम और भावनाओं पर नियंत्रण के कारण उसके कई पाप कर्म नष्ट हो गए और मृत्युपरांत वह स्वर्ग को प्राप्त हुआ.

 

सुखिया और दुखिया | दो लकड़हारों की कहानी

 बहुत समय पहले की बात है जंगल के करीब एक गाँव में दुखिया और सुखिया नाम के दो लकड़हारे रहते थे. एक सुबह जब वे जंगल में लकड़ियाँ काटने गए तो उनकी आँखे फटी की फटी रह गयी.

लकड़ी की तस्करी करने वाली गैंग ने बहुत सारे पेड़ काट दिए थे और बड़े-बड़े ट्रक्स में लकड़ियाँ भर ले गए थे.

ये देखते ही दुखिया क्रोधित हो गया, “देख सुखिया क्या किया उन तस्करों ने… मैं उन्हें छोडूंगा नहीं…. मैं गाँव के हर घर जाऊँगा और इस घटना की शिकायत करूँगा… क्या तुम भी मेरे साथ चलोगे…”

“तुम चलो मैं बाद में आता हूँ.”, सुखिया बोला.

“बाद में आता हूँ??? क्या मतलब है तुम्हारा इतनी बड़ी घटना हो गयी और तुम हाथ पे हाथ धरे बैठे रहोगे… चल के सबको इसके बारे में बताओगे नहीं?”, दुखिया हैरान होते हुए बोला.

“जो मन करे वो करो.. मैं तो चला…”

और फ़ौरन दुखिया गाँव के प्रधान के पास जा कर बोला, “आप यकीन करेंगे उन दुष्टों ने रातों-रात सैकड़ों पेड़ काट डाले… मैं कुछ नहीं जानता उन्हें सजा मिलनी ही चाहिए….किसी भी तरह से उनका पता लगाइए और उन्हें पुलिस के हवाले करिए…”

और इसके बाद दुखिया घर-घर जाकर यही बात बताने लगा और साथ में सुखिया की भी शिकायत करने लगा कि इतना कुछ हो जाने पर भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ा और वो इसके लिए कुछ भी नहीं कर रहा है.

गाँव वाले भी क्या करते उसके बात सुनते और ढांढस बंधा कर अपने-अपने काम में लग जाते.

ये सब करते-करते शाम हो गयी और दुखिया अपने घर लौट आया.

अगली सुबह वह फिर से सुखिया के पास गया और कहा, “आज मैं इस घटना की शिकायत करने कोतवाली जा रहा हूँ…क्या तुम नहीं चलोगे?”

“मैं चलना तो चाहता हूँ पर क्या हम दोपहर को नहीं चल सकते?”, सुखिया बोला.

“समझ गया… तुम टाल-मटोल कर रहे हो मैं अकेले ही चला जाता हूँ…”, और दुखिया गुस्से में वहां से निकल गया.

अगली सुबह दुखिया के दिमाग में आया कि इस घटना को लेकर गांधी चौक पर धरना दिया जाए…. और वह अपनी योजना लेकर सुखिया के घर पहंचा.

“खट-खट खट-खट”, दुखिया ने सुखिया को आवाज़ देते हुए दरवाजा खटखटाया

“बापू जंगल गए हैं!”, अंदर से आवाज़ आई.

दुखिया मन ही मन सोचने लगा कि ये सुखिया भी कितना पागल है… अब जब हमारे मतलब के पेड़ ही नहीं रहे तो वो जंगल में क्या करने गया है!

वह फ़ौरन सुखिया को बुलाने के लिए जंगल की ओर बढ़ गया.

वहां पहुँच कर उसने देखा कि सुखिया उस जगह को साफ़ कर उसमे नए पेड़ लगा रहा है.

दुखिया बोला, “ये क्या कर रहे हो? अभी बहुत से लोगों को इस घटना के बारे में पता नहीं चला है…. और तुम यहाँ नए पेड़ लगाने में समय बर्बाद कर रहे हो… क्यों कर रहे हो ऐसा?”

“क्योंकि बस शिकायत करने से पेड़ वापस नहीं आ जायेंगे!”, सुखिया बोला.

दोस्तों, कुछ बुरा होने के बाद जो काम सबसे आसान होता है वो है शिकायत करना. और शायद इसीलिए हर कोई इस आसान काम को करने में ही लगा रहता है. कुछ हद तक ऐसा करना natural भी लगता है पर problem ये है कि हम बस यही करने में अपनी पूरी energy… अपना पूरा focus लगा देते हैं…हम ये नहीं सोचते की जो समस्या पैदा हुई है उसके समाधान में हम खुद क्या कर सकते हैं…

क्या गली में कचरा फैलने पर हम खुद एक डस्टबिन लगा सकते हैं?
क्या ट्रैफिक जाम कम करने के लिए हम कार की जगह मेट्रो से जा सकते हैं?
क्या जंगल कटने पर हम पेड़ लगा सकते हैं?

 

बुधवार, 15 दिसंबर 2021

बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर से जुड़ी प्रेरक कहानिया व प्रसंग

 

#1: बाबासाहेब की ईमानदारी

यह आज़ादी के पहले की घटना है. 1943 में बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर को वाइसराय काउंसिल में शामिल किया गया और उन्हें श्रम मंत्री बना दिया गया. इसके साथ ही  लोक निर्माण विभाग (PWD) भी उन्ही के पास था. इस विभाग का बजट करोड़ों में था और ठेकेदारों में इसका ठेका लेने की होड़ लगी रहती थी.

इसी लालच में दिल्ली के एक बड़े ठेकेदार ने अपने पुत्र को बाबासाहेब के पुत्र यशवंत राव के पास भेजा और बाबासाहेब के माध्यम से ठेका दिलवाने पर अपना पार्टनर बनाने और 25-50% तक का कमीशन देने का प्रस्ताव दिया. यशवंत राव उसके झांसे में आ गए और अपने पिता को यह सन्देश देने पहुँच गए.

जैसे ही बाबासाहेब ने ये बात सुनी वो आग-बबूला हो गए. उन्होंने कहा-

“मैं यहाँ पर केवल समाज के उद्धार का ध्येय को लेकर आया हूँ। अपनी संतान को पालने नहीं आया हूँ। ऐसे लोभ-लालच मुझे मेरे ध्येय से डिगा नहीं सकते।”

और उसी रात यशवंत को भूखे पेट मुम्बई वापस भेज दिया.

Source: पुस्तक ‘युगपुरुष बाबासाहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर’

#2: बाबासाहेब और लाइब्रेरियन

डॉ. आंबेडकर ने अपने जीवन में बहुत से कष्ट सहे लेकिन कभी भी अपनी  शिक्षा को प्रभावित नहीं होने दिया. वह हर दिन 14 से 18 घंटे तक अध्ययन किया करते थे. शिक्षा के प्रति उनकी ललक और जी तोड़ मेहनत का ही परिणाम था कि बड़ौदा के शाहू महाराज जी ने उन्हें उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड भेज दिया था.

 

लन्दन प्रवास के दौरान वे रोज एक लाइब्रेरी में जाया करते थे और घंटों पढाई किया करते थे. एक बार वे लंच टाइम में अकेले लाइब्रेरी में बैठ-बैठे  ब्रेड का एक टुकड़ा खा रहे थे कि तभी लाइब्रेरियन ने उन्हें देख लिया और उन्हें डांटने लगा कि कैफेटेरिया में जाने की बजाय वे यहाँ छिप कर खाना खा रहे हैं. लाइब्रेरियन ने उनपर फाइन लगाने और उनकी मेम्बरशिप ख़त्म करने की धमकी दी.

तब बाबासाहेब ने क्षमा मांगी और अपने और अपने समाज के संघर्ष और इंग्लैंड आने के की वजह के बारे में बताया. उन्होंने यह भी बड़ी ईमानदारी से कबूल किया कि कैफेटेरिया में जाकर लंच करने के लिए उनके पास पर्याप्त पैसे नहीं हैं.

उनकी बात सुनकर लाइब्रेरियन बोला-

आज से तुम लंच आर्स में यहाँ नहीं बैठोगे तुम मेरे साथ कैफेटेरिया चोलोगे और मैं तुमसे अपना खाना शेयर करूँगा.

वह लाइब्रेरियन एक यहूदी (Jew) था और उसके इस व्यवहार के कारण बाबासाहेब के मन में यहूदियों के लिए एक विशेष स्थान बन गया.

#3: ख़याल कौन रखेगा?

यह घटना तबकी है जब डॉ. आंबेडकर जब अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे. वह रोज सुबह लाइब्रेरी खुलने से पहले ही वहां पहुँच जाते थे और सबके जाने के बाद ही वे वहां से निकलते थे. यहाँ तक कि वे कई बार लाइब्रेरी की टाइमिंग ख़त्म होने के बाद भी वहां बैठे रहने की अनुमति माँगा करते थे.

उन्हें रोज ऐसा करते देख एक दिन चपरासी ने उनसे कहा, “क्यों तुम हमेशा गंभीर रहते हो, बस पढाई ही करते रहते हो और कभी किसी दोस्त के साथ मौज-मस्ती नहीं करते.”

तब बाबा साहेब बोले-

“अगर मैं ऐसा करूँगा तो मेरे लोगों का ख़याल कौन रखेगा?”

 

#4: संस्कृत का ज्ञान

डॉ. अम्बेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना के लिए बनी संविधान मसौदा समिति (Drafting Committee of the Constitution) का अध्यक्ष बनाया गया.

बात जब scheduled languages की लिस्ट तैयार करने की आई तो बाबासाहेब उसमे सभी भाषाओँ की जननी संस्कृत को भी स्थान देना चाहते थे. हालांकि, अधिकतर सदस्यों के विरोध के कारण ऐसा नहीं हो पाया. लेकिन इस दौरान जब एक बार संस्कृत भाषा को लेकर श्री लाल बहादुर शाश्त्री और आंबेडकर जी के बीच चर्चा हो रही थी तब लोगों ने देखा कि दोनों ही महान हस्तियाँ संस्कृत में वार्तालाप कर रही हैं.

शाश्त्री जी से संस्कृत भाषा का ज्ञान होने की उम्मीद तो की जा सकती थी पर अशिक्षित दलित परिवार में जन्में बाबासाहेब भी संस्कृत भाषा पर इतनी पकड़ रखते हैं यह किसी ने नहीं सोचा था. जल्द ही ये बात मीडिया में छा गयी और सभी आंबेडकर जी के ज्ञान का लोहा मानने लगे.

#5: No Peon, No Water / चपरासी नहीं, पानी नहीं 

बाबासाहेब महार जाति से थे जिसे अछूत माना जाता था. यही कारण था कि वे विद्यालय में बाकी छात्रों के साथ नहीं बैठ सकते थे और उन्हें कक्षा के बाहर बैठ कर पढना पड़ता था. इसके अलावा उन्हें विद्यालय का नल छूने की भी अनुमति नहीं थी, जबकि बाकि के छात्र जब चाहे तब नल चला कर पानी पी सकते थे.

उन्हें सिर्फ एक ही सूरत में पानी मिल सकता था, जब विद्यालय का चपरासी भी उपस्थित हो, यही वह नहीं होता था तो कोई और भी उन्हें नल चला कर पानी नहीं देता था. इसी स्थिति को उन्होंने बाद में अपने एक article में एक लाइन में summarize किया है-

“No peon, no water.”

आज आप क्या कर रहे हैं यही तय करेगा कि कल आप क्या करेंगे

 सूखे के कारण माधवपुर गाँव के किसान बहुत परेशान थे. धरती से पानी गायब हो चुका ,ट्यूबवेल जवाब दे चुके थे… खेती करने के लिए सभी बस इंद्र की कृपा पर निर्भर थे. 

आज आप क्या कर रहे हैं यही तय करेगा कि कल आप क्या करेंगे

सूखे के कारण माधवपुर गाँव के किसान बहुत परेशान थे. धरती से पानी गायब हो चुका ,ट्यूबवेल जवाब दे चुके थे… खेती करने के लिए सभी बस इंद्र की कृपा पर निर्भर थे.

Hindi Story on Preparing Yourself in Bad Times

पर बहुत से पूजा-पाठ और यज्ञों के बावजूद बारिश होने का नाम नहीं ले रही थी. हर रोज किसान एक जगह इकठ्ठा होते और बादलों को ताकते रहते कि कब बारिश हो और वे खेतों में लौट सकें.

आज भी सभी बारिश के इंतज़ार में बैठे हुए थे कि तभी किसी ने कहा, “अरे ये हरिया कहाँ रह गया… दो-तीन दिन से वो आ नहीं रहा… कहीं मेहनत-मजदूरी करने शहर तो नहीं चला?”

बात हंसी में टल गयी पर जब अगले दो-तीन दिन हरिया दिखाई नहीं दिया तो सभी उसके घर पहुंचे.

“बेटा, तेरे बाबूजी कहाँ हैं?”, हरिया के बेटे से किसी ने प्रश्न किया.

“पापा खेत में काम करने गए हैं!”, बेटा यह कहते हुए अन्दर की ओर भागा.

“खेत में काम करने!”, सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ कि हरिया ऐसा कैसे कर सकता है.

“लगता है इस गर्मी में हरिया पगला गया है!”, किसी ने चुटकी ली और सभी ठहाका लगाने लगे.

लेकिन सबके अन्दर कौतूहल था कि हरिया खेत में क्या कर रहा होगा और सभी उसे देखने के लिए चल पड़े.

उन्होंने देखा कि हरिया खेत में गड्ढा खोद रहा था.

“अरे! हरिया! ये तू क्या कर रहा है?”

“कुछ नहीं बस बारिश होने की तैयारी कर रहा हूँ.”

“जहाँ बड़े-बड़े जतन करने से बारिश नहीं हुई वहां तेरा ये गड्ढा खोदने का टोटका कहाँ काम आने वाला!”

“नहीं-नहीं मैं टोटका नहीं कर रहा मैं तो बस कोशिश कर रहा हूँ कि जब बारिश हो तो मैं हर तरफ का बहाव इस जलाशय की ओर कर इसमें ढेर सारा पानी इकठ्ठा कर सकूँ… ताकि अगली बार बारिश के बिना भी कुछ दिन काम चल जाए!”

“इस बार का ठिकाना नहीं और तू अगली बार की बात कर रहा है…महीनों बीत गए और एक बूँद नहीं टपकी है आसमान से… ये बेकार की मेहनत में समय बर्बाद मत कर… चल हमारे साथ वापस चल!”

लेकिन हरिया ने उनकी बार अनसुनी कर दी और कुछ दिनों में अपना जलाशय तैयार कर लिया.

ऐसे ही कई दिन और बीत गए पर बारिश नहीं हुई… फिर एक दिन अचानक ही रात में बादलों के घरघराहट सुनाई दी… बिजली चमकने लगी और बारिश होने लगी.

मिटटी की भीनी-भीनी खुशबु सारे इलाके में फ़ैल गयी… किसानों के चेहरे खिल उठे… सभी सोचने लगे कि बस अब उनके बुरे दिन ख़त्म हो जायेंगे… लेकिन ये क्या कुछ देर बरसने के बाद बारिश थम गयी और किसानों की ख़ुशी भी जाती रही.

अगली सुबह सब खेतों का जायजा लेने पहुंचे. मिटटी बस ऊपर से गीली भर हो पायी थी, ऐसे में खेतों की जुताई शुरू तो हो सकती थी लेकिन सींचाई के लिए और भी पानी की ज़रुरत पड़ती… किसान मायूस हो अपने घरों को लौट गए.

दूसरी तरफ हरिया भी अपने खेत पहुंचा और लाबालब भरे छोटे से जलाशय को देखकर खुश हो गया. समय गँवाए बिना उसने हल उठाया और खेत जोतना शुरू कर दिया. कुछ ही महीनों में माधवपुर के सूखाग्रस्त इलाके में बस एक ही चीज हरी-भरी दिखाई दे रही थी— हरिया का खेत.

दोस्तों, जब conditions सही न हों तो ऐसे में अधिकतर लोग बस उसके सही होने का इंतज़ार करते रहते हैं, और उसे लेकर परेशान रहते हैं. जबकि करना ये चाहिए कि खुद को उस वक़्त के लिए तैयार रखना चाहिए जब परिस्थितियां बदलेंगी जब, सूखा ख़त्म होगा…जब बारिश आएगी.

क्योंकि ये प्रकृति का नियम है… दिन के बाद रात तो रात के बाद दिन आना ही आना है… आपका बुरा वक़्त हमेशा के लिए नहीं रहने वाला… चीजें बदलती हैं…. चीजें बदलेंगी… लेकिन क्या आप उस बदलाव का फायदा उठाने के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं… क्या आप job opportunities आने पर उन्हें grab करने के लिए तैयारी कर रहे हैं या बस उनके ना होने का रोना रो रहे ?

… क्या acting, singing या dancing का कोई मौका मिलने पर आप उसके लिए जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं या बस contacts न होने की अपनी बदनसीबी जाहिर कर रहे हैं.

बस इतना समझ लीजिये कि-

आज आप क्या कर रहे हैं यही तय करेगा कि कल आप क्या करेंगे.

इसलिए अगर असफल लोगों की भीड़ का हिस्सा नहीं बल्कि मुट्ठी भर कामयाब लोगों के group का part बनना चाहते हैं तो इस आज को अपना बनाइये… उठाइये अपने औजार और तैयारी करिए लहलहाती फसल की…बारिश बस होने ही वाली है!

 

 

कब तक करते रहेंगे खुद को नेगलेक्ट ?

 बहुत समय पहले की बात है रामपुर गाँव में ननकू नाम का एक मोची रहता था. पैसा कम होने के कारण उसके संगी-साथी यह  काम छोड़ चुके थे पर ननकू बड़ी तसल्ली से लोगों के जूते-चप्पलों की मरम्मत करता था.

आस-पास के कई गाँव में एक मात्र मोची होने के कारण उसके पास काम की कोई कमी नहीं रहती, दूर-दूर से लोग अपने फटे-चीथड़े जूते-चप्पल बनवाने पहुँचते. ननकू भी बड़ी लगन से अपने ग्राहकों को समय देता और उनका काम पूरा कर देता. पर इन सबके बीच वह अपने ही पुराने हो रहे जूतों की ओर ध्यान नहीं देता.

समय बीतता गया… ननकू दुनिया भर के जूतों को चमकाता रहा और उसके अपने जूते ही घिसते-घिसते खराब होते रहे.

कुछ लोग उसे जूतों के लिए टोकते भी पर वो हर बार यही कह के टाल देता कि –

पहले ग्राहकों के जूते तो बना लूँ फिर अपने भी बना लूँगा.

करते-करते जूते इतने खराब हो गए कि अब वे उसके के पैरों को तकलीफ देने लगे…. ध्यान ना देने के कारण ननकू के पैरों में घाव भी बन गया.

जब लोग उसे इसके लिए कुछ बोलते तो वह कहता-

अरे बस हलकी सी चोट है… ठीक हो जायेगी आप चिंता ना करें.

लापरवाही के कारण कुछ महीनों बाद ननकू के पैर इतने घराब हो गए कि वह लंगड़ा-लंगड़ा कर चलने लगा… असहनीय पीड़ा होने पर लोग उसे शहर के हस्पताल ले गए.

पता चला कि ननकू महीनों पहले शुरू हुआ एक छोटा सा घाव अब नासूर बन चुका है.

डॉक्टर्स के पास कोई विकल्प नहीं था, उन्हें ननकू का एक पैर घुटने के नीचे से काटना पड़ा.

इस घटना से पहुंचे आघात के कारण ननकू कभी भी अपने काम पर नहीं लौटा और आज उसकी वजह से पूरा गाँव ही फटे-पुराने जूते-चप्पल पहनने को मजबूर था.

दोस्तों, क्या आप इस character ननकू को identify कर पा रहे हैं? क्या आपकी लाइफ में भी कोई है जो ननकू की तरह behave कर रहा है…या कहीं आप खुद ही ननकू तो?

क्या आप अपने परिवार, अपने बिजनेस या किसी और चीज का ध्यान रखने में इतने बिजी हैं कि खुद का ख्याल ही नहीं रखते?

मैंने देखा है कि अक्सर माएं ऐसा करती हैं, वे अपने बच्चों… अपने परिवार की खूब care करती हैं पर खुद के खान-पान और सेहत पर ध्यान ही नहीं देतीं…वे घर के हर एक मेम्बर के लिए गरमागरम दूध लेकर पहुँच जाती हैं पर खुद दूध नहीं पीतीं.

ऐसा करना एक पल के लिए आपको अच्छा एहसास दे सकता है कि आप selfless होकर अपने अपनों के लिए त्याग कर रहे हैं… but in the long run…ये ना आपके लिए सही है ना आपके loved ones के लिए और ना ही आपके business के लिए, in case you have one.

 

दो तेंदुओं की कहानी

नंदन वन में जग्गा और राका नाम के  दो तेंदुए रहते थे. वहां हिरनों की कोई कमी नहीं थी, दोनों अपने-अपने इलाकों में आराम से इनका शिकार करते और महीने के अंत में जंगल के बीचो-बीच स्थित एक टीले पर मिलकर साथ में कुछ समय बिताते.

ऐसी ही एक मुलाक़ात में जग्गा बोला, “मैं सोच रहा हूँ कि अब मैं सुअर का शिकार करना भी सीख लूँ.”

इस पर राका बोला. “ऐसा करने की क्या ज़रुरत ? इस जंगल में हज़ारों हिरन हैं और हम बड़ी आसानी से उनका शिकार कर लेते हैं…फिर क्यों बेकार में नया शिकार सीखने में अपनी एनर्जी बर्बाद की जाए?”

“तुम्हारी बात सही है कि आज यहाँ बहुत से हिरन हैं… पर कल किसने देखा है? क्या पता एक दिन इनकी संख्या कम हो जाए…” जग्गा ने समझाया.

यह सुन कर राका जोर से हंस पड़ा और बोला, “जो तुम्हारे जी में आये करो मैं बेकार की चीजों में अपना समय बर्बाद नहीं करूँगा.”

इसके बाद दोनों तेंदुए अपने-अपने रास्ते चल दिए और एक महीने बाद वापस उसी टीले पे मिले.

“पता है इस महीने मैंने बड़े ध्यान से सुअरों की गतिविधियाँ देखीं… इन्हें पकड़ना इतना आसान भी नही होता है… कई प्रयासों के बाद ही मैं पहली बार एक सुअर का शिकार कर पाया… और पूरे महीने इसी की प्रैक्टिस करता रहा. और अब इस महीने मैं बंदरों का शिकार करना सीखूंगा.” जग्गा उत्साहित होते हुए बोला.

पर इन सब बातों का राका पर कोई असर नहीं पड़ा उसने वही बात दोहरा दी, “जो तुम्हारे जी में आये करो मैं बेकार की चीजों में अपना समय बर्बाद नहीं करूँगा.”

अगले महीने जग्गा बन्दर कर शिकार करना सीख चुका था.

समय बीतता गया और साल का अंत आते-आते जग्गा ने सुअर, बन्दर, ज़ेब्रा  , भेंड़, नीलगाय समेत कई जानवरों का शिकार करने में महारथ हासिल कर लिया

और दूसरी तरफ राका अभी भी बस हिरनों का शिकार करना ही जानता था.

अगले कुछ सालों तक सबकुछ सामान्य रहा पर उसके बाद नंदन वन में भयंकर सूखा पड़ा. तालाब के तालाब सूख गए, कभी घासों से लहलहाते मैदान आज बंजर हो गए…पेड़-पौधों से पत्तियां गायब सी हो गयीं… भोजन और पानी की कमी के कारण बहुत से जानवर मर गए. हर तरफ हाहाकार मच गया.

बचे हुए मुट्ठीभर हिरनों को मारने के लिए शेर, बाघ और चीता जैसे जानवर आपस में टकराने लगे.

ऐसे में जग्गा और राका एक बार फिर से टीले पर मिले. साफ़ पता चल रहा था कि इस त्रासदी के बावजूद जग्गा की सेहत पर कोई ख़ास फरक नहीं पड़ा था जबकि राका की हालत बुरी थी… पर्याप्त भोजन न मिलने के कारण वह कमजोर हो गया था… और इस हालत में कोई नया शिकार करना सीखना भी उसके बस की बात नहीं थी.

राका आज मन ही मन पछता रहा था उसके मन में उसके ही शब्द…“जो तुम्हारे जी में आये करो मैं बेकार की चीजों में अपना समय बर्बाद नहीं करूँगा.” गूँज रहे थे.

दोनों दोस्त विदा हुए और इसके बाद राका कभी नहीं दिखाई दिया.

 

सोमवार, 13 दिसंबर 2021

बटुए की फोटो

 खचाखच भरी बस में कंडक्टर को एक गिरा हुआ बटुआ मिला जिसमे एक पांच सौ का नोट और भगवान् कृष्ण की एक फोटो थी.
वह जोर से चिल्लाया , ” अरे भाई! किसी का बटुआ गिरा है क्या?”

अपनी जेबें टटोलने के बाद सीनियर सिटीजन सीट पर बैठा एक आदमी बोला, “हाँ, बेटा शायद वो मेरा बटुआ होगा… जरा दिखाना तो.”

“दिखा दूंगा- दिखा दूंगा, लेकिन चाचाजी पहले ये तो बताओ कि इसके अन्दर क्या-क्या है?”

“कुछ नहीं इसके अन्दर थोड़े पैसे हैं और मेरे कृष्णा की एक फोटो है.”, चाचाजी

अपनी जेबें टटोलने के बाद सीनियर सिटीजन सीट पर बैठा एक आदमी बोला, “हाँ, बेटा शायद वो मेरा बटुआ होगा… जरा दिखाना तो.”

“दिखा दूंगा- दिखा दूंगा, लेकिन चाचाजी पहले ये तो बताओ कि इसके अन्दर क्या-क्या है?”

“कुछ नहीं इसके अन्दर थोड़े पैसे हैं और मेरे कृष्णा की एक फोटो है.”, चाचाजी ने जवाब दिया.

“पर कृष्णा की फोटो तो किसी के भी बटुए में हो सकती है, मैं कैसे मान लूँ कि ये आपका है.”, कंडक्टर ने सवाल किया.

ने जवाब दिया.

“पर कृष्णा की फोटो तो किसी के भी बटुए में हो सकती है, मैं कैसे मान लूँ कि ये आपका है.”, कंडक्टर ने सवाल किया.

अब चाचाजी उसके बगल में बैठ गए और बोले, “बेटा ये बटुआ तब का है जब मैं हाई स्कूल में था. जब मेरे बाबूजी ने मुझे इसे दिया था तब मेरे कृष्णा की फोटो इसमें थी.

लेकिन मुझे लगा कि मेरे माँ-बाप ही मेरे लिए सबकुछ हैं इसलिए मैंने कृष्णा की फोटो के ऊपर उनकी फोटो लगा दी…

जब युवा हुआ तो लगा मैं कितना हैंडसम हूँ और मैंने माँ-बाप के फोटो के ऊपर अपनी फोटो लगा ली…

फिर मुझे एक लड़की से प्यार हो गया, लगा वही मेरी दुनिया है, वही मेरे लिए सबकुछ है और मैंने अपनी फोटो के साथ-साथ उसकी फोटो लगा ली… सौभाग्य से हमारी शादी भी हो गयी.

कुछ दिनों बाद मेरे बेटे का जन्म हुआ, इतना खुश मैं पहले कभी नहीं हुआ था…सुबह-शाम, दिन-रात मुझे बस अपने बेटे का ही ख़याल रहता था…

अब इस बटुए में मैंने सबसे ऊपर अपने बेटे की फोटो लगा ली…

पर अब जगह कम पड़ रही थी, सो मैंने कृष्णा और अपने माँ-बाप की फोटो निकाल कर बक्से में रख दी…

और विधि का विधान देखो, फोटो निकालने के दो-चार साल बाद माता-पिता का देहांत हो गया… और दुर्भाग्यवश उनके बाद मेरी पत्नी भी एक लम्बी बीमारी के बाद मुझे छोड़ कर चली गयी.

इधर बेटा बड़ा हो गया था, उसकी नौकरी लग गयी, शादी हो गयी… बहु-बेटे को अब ये घर छोटा लगने लगा, उन्होंने अपार्टमेंट में एक फ्लैट ले लिया और वहां चले गए.

अब मैं अपने उस घर में बिलकुल अकेला था जहाँ मैंने तमाम रिश्तों को जीते-मरते देखा था…

पता है, जिस दिन मेरा बेटा मुझे छोड़ कर गया, उस दिन मैं बहुत रोया… इतना दुःख मुझे पहले कभी नहीं हुआ था…कुछ नहीं सूझ रहा था कि मैं क्या करूँ और तब मेरी नज़र उस बक्से पर पड़ी जिसमे सालों पहले मैंने कृष्णा की फोटी अपने बटुए से निकाल कर रख दी थी…

मैंने फ़ौरन वो फोटो निकाली और उसे अपने सीने से चिपका ली… अजीब सी शांति महसूस हुई…लगा मेरे जीवन में तमाम रिश्ते जुड़े और टूटे… लेकिन इन सबके बीच में मेरे भगवान् से मेरा रिश्ता अटूट रहा… मेरा कृष्णा कभी मुझसे रूठा नहीं…

और तब से इस बटुए में सिर्फ मेरे कृष्णा की फोटो है और किसी की भी नहीं… और मुझे इस बटुए और उसमे पड़े पांच सौ के नोट से कोई मतलब नहीं है, मेरा स्टॉप आने वाला है…तुम बस बटुए की फोटो मुझे दे दो…मेरा कृष्णा मुझे दे दो…

कंडक्टर ने फौरन बटुआ चाचाजी के हाथ में रखा और उन्हें एकटक देखता रह गया.

तीसरा समझदार दोस्त

 बहुत समय पहले की बात है, दो अरबी दोस्तों को एक बहुत बड़े खजाने का नक्शा मिला. खजाना किसी रेगिस्तान के बीचो-बीच था.

दोनों ने योजना बनाना शुरू की. खजाने तक पहुँचने के लिए बहुत लम्बा समय लगता और रास्ते में भूख- प्यास से  मर जाने का भी खतरा था. बहुत विचार करने पर दोनों ने तय किया कि इस योजना में एक और समझदार दोस्त को शामिल किया जाए, ताकि वे एक और ऊंट अपने साथ ले जा सकें जिस पर खाने-पीने का ढेर सारा सामान भी आ जाए और खजाना अधिक होने पर वे उसे ऊंट पर ढो भी सकें.

पर सवाल ये उठा कि चुनाव किसका किया जाए?

बहुत सोचने के बाद मोहम्मद और रिजवान को चुना गया. दोनों हर तरह से बिलकुल एक तरह के थे और कहना मुश्किल था कि दोनों में अधिक बुद्धिमान कौन है? इसलिए एक प्रतियोगिता के जरिये सही व्यक्ति का चुनाव करने का फैसला किया गया.

दोनों दोस्तों ने उन्हें एक निश्चित स्थान पर बुलाया और बोले, “आप लोगों को अपने-अपने ऊंट पर सवार होकर सामने दिख रहे रास्ते पर आगे बढ़ना है. कुछ दूर जाने के बाद ये रास्ता दो अलग-अलग रास्तों में बंट  जाएगा- एक सही और एक गलत. जो इंसान सही रास्ते पर जाएगा वही हमारा तीसरा साथी बनेगा और खजाने का एक-तिहाई हिस्सा उसका होगा.”

दोनों ने आगे बढ़ना शुरू किया और उस बिंदु पे पहुँच गए जहाँ से रास्ता बंटा हुआ था.

वहां पहुँच कर मोहम्मद ने इधर-उधर देखा, उसे दोनों रास्तों में कोई अंतर समझ नहीं आया और वह जल्दी से बांये तरफ बढ़ गया. जबकि, रिजवान बहुत देर तक उन रास्तों की ओर देखता रहा, और उन पर आगे बढ़ने के नतीजे के बारे में सोचता रहा.

करीब 1 घंटे बाद बायीं ओर के रास्ते पर धूल उड़ती दिखाई दी. मोहम्मद बड़ी तेजी से उस रास्ते पर वापस आ रहा था.

उसे देखते ही रिजवान मुस्कुराया और बोला, “गलत रास्ता ?”

“हाँ, शायद!”, मोहम्मद ने जवाब दिया.

दोनों दोस्त छुप कर यह सब देख रहे थे और वे तुरंत उनके सामने आये और बोले, “बधाई हो!

“शुक्रिया!”, रिजवान ने फ़ौरन जवाब दिया.

“तुम्हे नहीं, हमने मोहम्मद को चुना है.”, दोनों दोस्त एक साथ बोले.

“पर मोहम्मद तो गलत रास्ते पर आगे बढ़ा था… फिर उसे क्यों चुना जा रहा है?”, रिजवान गुस्से में बोला.

“क्योंकि उसने ये पता लगा लिया कि गलत रास्ता कौन है और अब वो सही रास्ते पर आगे जा सकता है, जबकि तुमने पूरा वक़्त बस एक जगह बैठ कर यही सोचने में गँवा दिया कि कौन सा रास्ता सही है और कौन सा गलत. समझदारी किसी चीज के बारे में ज़रूरत से ज्यादा सोचने में नहीं बल्कि एक समय के बाद उस पर काम करने और तजुर्बे से सीख लेने में है.”, दोस्तों ने अपनी बात पूरी की. 

Friends, हमारी life में भी कभी न कभी ऐसा point आता है जहाँ हम decide नहीं कर पाते कि कौन सा रास्ता सही है और कौन सा गलत. और ऐसे में बहुत से लोग बस सोच-विचार करने में अपना काफी समय बर्बाद कर देते हैं. जबकि, ज़रुरत इस बात की है कि चीजों को over-analyze करने की बजाय मोहम्मद की तरह अपने options को carefully consider करके action लिया जाए और अपने experience के आधार पर आगे बढ़ा जाए.

 

मंगलवार, 7 दिसंबर 2021

आस्था का चमत्कार!

 अपनी तोतली आवाज़ में उसने माँ से पूछा, “माँ, मेला गुल्लक कहाँ गया?”

माँ ने आलमारी से गुल्लक उतार कर दे दिया और अपने काम में व्यस्त हो गयी.

मौका देखकर गुड़िया चुपके से बाहर निकली और पड़ोस के मंदिर जा पहुंची.

सुबह-सुबह मंदिर में भीड़ अधिक थी…. हाथ में गुल्लक थामे वह किसी तरह से बाल-गोपाल के सामने पहुंची और  पंडित जी से कहा, “बाबा, जला कान्हा को बाहल बुलाना!”

“अरे बेटा कान्हा अभी सो रहे हैं… बाद में आना..”,पंडित जी ने मजाक में कहा.

“कान्हा उठो.. जल्दी कलो … बाहल आओ…”, गुड़िया चिल्ला कर बोली.

हर कोई गुड़िया को देखने लगा.

“पंडित जी, प्लीज… प्लीज कान्हा को  उठा दीजिये…”

“क्या चाहिए तुमको कान्हा से?”

“मुझे चमत्काल चाहिए… और इसके बदले में मैं कान्हा को अपना ये गुल्लक भी दूँगी… इसमें 100 लूपये हैं …कान्हा इससे अपने लिए माखन खरीद सकता है. प्लीज उठाइए न उसे…इतने देल तक कोई छोता है क्या???”

“ चमत्कार!, किसने कहा कि कान्हा तुम्हे चमत्कार दे सकता है?”

“मम्मा-पापा बात कल लहे थे कि भैया के ऑपरेछन के लिए 10 लाख लूपये चाहिए… पल  हम पहले ही अपना गहना… जमीन सब बेच चुके हैं…और नाते-रिश्तेदारों ने भी फ़ोन उठाना छोड़ दिया है…अब कान्हा का कोई चमत्काल ही भैया को बचा सकता है…”

पास ही खड़ा एक व्यक्ति गुड़िया की बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था, उसने पूछा, “बेटा क्या हुआ है तुम्हारे भैया को?”

“ भैया को ब्लेन ट्यूमल है…”

“ब्रेन ट्यूमर???”

“जी अंकल,  बहुत खतल्नाक बिमाली होती है…”

व्यक्ति मुस्कुराते हुए बाल-गोपाल की मूर्ती निहारने लगा…उसकी आँखों में श्रद्धा के आंसूं बह निकले…रुंधे गले से वह बोला, “अच्छा-अच्छा तो तुम वही लड़की हो… कान्हा ने बताया था कि तुम आज सुबह यहाँ मिलोगी… मेरा नाम ही चम्त्कार है… लाओ ये गुल्लक मुझे दे दो और मुझे अपने घर ले चलो…”

वह व्यक्ति लन्दन का एक प्रसिद्द न्यूरो सर्जन था और अपने माँ-बाप से मिलने भारत आया हुआ था. उसने गुल्लक में पड़े मात्र सौ रुपयों में ब्रेन ट्यूमर का ऑपरेशन कर दिया और गुड़िया के भैया को ठीक कर दिया.

सचमुच, अगर आपमें अटूट श्रद्धा हो और आप कोई नेक काम करना चाहते हैं तो कृष्णा किसी न किसी रूप में आपकी मदद ज़रूर करते हैं!

यही है आस्था का चमत्कार!

दोस्तों, भले ये एक काल्पनिक कहानी हो लेकिन कई बार सत्य कल्पना से भी परे होता है और दुनिया में ऐसी हजारों-लाखों घटनाएं हैं जहाँ असंभव सी लगने वाले चीजें भी विश्वास के दम पर संभव बन जाती हैं. इसलिए, ईश्वर में यकीन रखते हुए अपने लक्ष्य को पाने के लिए कड़ी मेहनत करिए… क्या पता एक दिन आपके लिए कोई चमत्कार हो जाए या आप किसी और के लिए चमत्कार कर दें!

 

क्या है शांत होने का असल मतलब?

एक राजा था जिसे पेटिंग्स से बहुत प्यार था. एक बार उसने घोषणा की कि जो कोई भी उसे एक ऐसी पेंटिंग बना कर देगा जो शांति को दर्शाती हो तो वह उसे मुंह माँगा इनाम देगा.

एक करके सभी पेंटिंग्स देखीं और उनमे से दो को अलग रखवा दिया.

अब इन्ही दोनों में से एक को इनाम के लिए चुना जाना था.

पहली पेंटिंग एक अति सुन्दर शांत झील की थी. उस झील का पानी इतना साफ़ था कि उसके अन्दर की सतह तक नज़र आ रही थी. और उसके आस-पास मौजूद हिमखंडों की छवि उस पर ऐसे उभर रही थी मानो कोई दर्पण रखा हो. ऊपर की और नीला आसमान था जिसमे रुई के गोलों के सामान सफ़ेद बादल तैर रहे थे.

जो कोई भी इस पेटिंग को देखता उसको यही लगता कि शांति को दर्शाने के लिए इससे अच्छी पेंटिंग हो ही नहीं सकती.

दूसरी पेंटिंग में भी पहाड़ थे, पर वे बिलकुल रूखे, बेजान , वीरान थे और इन पहाड़ों के ऊपर घने गरजते बादल थे जिनमे बिजलियाँ चमक रही थीं…घनघोर वर्षा होने से नदी उफान पर थी… तेज हवाओं से पेड़ हिल रहे थे… और पहाड़ी के एक ओर स्थित झरने ने रौद्र रूप धारण कर रखा था.

जो कोई भी इस पेटिंग को देखता यही सोचता कि भला इसका “शांति” से क्या लेना देना… इसमें तो बस अशांति ही अशांति है.

सभी आश्वस्त थे कि पहली पेंटिंग बनाने वाले चित्रकार को ही इनाम मिलेगा. तभी राजा अपने सिंघासन से उठे और ऐलान किया कि दूसरी पेंटिंग बनाने वाले चित्रकार को वह मुंह माँगा इनाम देंगे.

हर कोई आश्चर्य में था!

पहले चित्रकार से रहा नहीं गया, वह बोला, “लेकिन महाराज उस पेटिंग में ऐसा क्या है जो आपने उसे इनाम देने का फैसला लिया… जबकि हर कोई यही कह रहा है कि मेरी पेंटिंग ही शांति को दर्शाने के लिए सर्वश्रेष्ठ है?”

“आओ मेरे साथ!”, राजा ने पहले चित्रकार को अपने साथ चलने के लिए कहा.दूसरी पेंटिंग के समक्ष पहुँच कर राजा बोले, “झरने के बायीं ओर हवा से एक तरह झुके इस वृक्ष को देखो…देखो इसकी डाली पर बने इस घोसले को देखो… देखो कैसे एक चिड़िया इतनी कोमलता से, इतने शांत भाव व प्रेम से पूर्ण होकर अपने बच्चों को भोजन करा रही है…”

फिर राजा ने वहां उपस्थित सभी लोगों को समझाया-

“ शांत होने का मतलब ये नही है कि आप ऐसे स्थिति में हों जहाँ कोई शोर नहीं हो…कोई समस्या नहीं हो… जहाँ कड़ी मेहनत नहीं हो… जहाँ आपकी परीक्षा नहीं हो… शांत होने का सही अर्थ है कि आप हर तरह की अव्यवस्था, अशांति, अराजकता के बीच हों और फिर भी आप शांत रहें, अपने काम पर केन्द्रित रहें… अपने लक्ष्य की और अग्रसित रहें.”

अब सभी समझ चुके थे कि दूसरी पेंटिंग को राजा ने क्यों चुना है.दोस्तों, हर कोई अपनी life में peace चाहता है. पर अक्सर हम “शांति” को कोई बाहरी वस्तु समझ लेते हैं, और उसे remote locations और extended vacations में ढूंढते हैं. जबकि शांति पूरी तरह से हमारे अन्दर की चीज है, और fact यही है कि तमाम दुःख-दर्दों, तकलीफों और दिक्कतों के बीच भी शांत रहना ही असल में शांत होना है.

मजबूत रिश्ते का रहस्य

अमन एक शांत स्वभाव का लड़का था. वह किराये के एक छोटे से घर में अपनी पत्नी आरती के साथ रहता था.

पिछले तीन साल से वह एक मल्टीनेशनल कम्पनी में काम कर रहा था और अभी तक एक बार भी उसकी सैलरी नहीं बढ़ी थी. वह बार-बार सोचता कि बॉस से पगार बढाने के बारे में कहूँ पर हर बार संकोच वश वह कुछ कह नहीं पाता था.

लेकिन एक दिन उसने निश्चय किया कि आज मैं बॉस से ज़रूर इस बारे में बात करूँगा. आरती ने भी अमन की हिम्मत बढ़ाई और हाथ में लंच थमाते हुए all the best कहा.

ऑफिस पहुँच कर अमन ने सही मौका देखते हुए बॉस से अपने दिल की बात कह डाली.

बॉस मुस्कुराते हुए बोले, “बिलकुल अमन, कुछ दिन पहले हुई मीटिंग में ही हमने तय कर लिया था कि इस बार तुम्हे 30% की हाइक दी जायेगी… हम तुम्हे इस बारे में बताने ही वाले थे…. कम्पनी तुम्हारी लॉयल्टी और परफॉरमेंस से खुश है और अगले महीने से तुम्हे बढ़ी हुई तनख्वाह मिलने लगेगी.”

अमन को यकीन ही नहीं हुआ कि इतनी आसानी से उसकी बात मान ली गयी है. उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था. ऑफिस ख़त्म होते ही यह खुशखबरी सुनाने के लिए वह आरती के मनपसंद रसगुल्ले  खरीद कर घर के लिए निकला.

आरती भी आज अमन के इंतज़ार में आँखें बिछाई बैठी थी. दूर से ही देखकर वह समझ गयी कि अमन को सैलरी हाइक मिल चुकी है. वह अमन का वेलकम करने के लिए दरवाजे पर खड़ी हो गयी.

अमन गेट से अन्दर घुसा. आरती एक सुन्दर साड़ी पहने तैयार खड़ी थी… पूरा घर भीनी-भीनी खुश्बू में नहा रहा था…. डिनर टेबल पर क्रॉकरी का नया सेट लगा हुआ था और  बीच में एक कैंडल जल रही थी. खाने में हर वो चीज बनी हुई थी जो अमन को बेहद पसंद है….और इन सबके बीच में एक सुन्दर सा कार्ड रखा हुआ था.

अमन ने कार्ड उठाया और पढना शुरू किया-

डिअर अमन, मुझे पता था कि जो तुम चाहते हो वही होगा… तुम्हारी इस ख़ुशी में आज मैं सबसे ज्यादा खुश हूँ…ये खुश्बू…ये नया क्रॉकरी  सेट…ये डिशेज …ये कैंडल… ये सबकुछ तुम्हे यही बताने के लिए हैं कि मैं तुमसे कितना प्यार करती हूँ. I love you so much.

-आरती

यह पढ़ कर अमन मुस्कुराया और अपनी वाइफ को गले से लगा लिया.

“मैं अभी तुम्हारा मुंह मीठा कराता हूँ.”, यह कहते हुए अमन किचन से प्लेट लाने के लिए बढ़ा.

लेकिन ये क्या…किचन की शेल्फ पर भी ठीक वैसा ही कार्ड पड़ा था जैसा उसने अभी-अभी पढ़ा था.

अमन ने फ़ौरन कार्ड उठाया, और पढ़ने लगा-

डिअर अमन,

क्या हुआ जो तुम्हारी सैलरी नहीं बढ़ी…कोई बात नहीं! मुझे पता है तुम्हारी वैल्यू इन छोटी-मोटी हाइक्स से कहीं ज्यादा है… ये खुश्बू…ये नया क्रॉकरी  सेट…ये डिशेज …ये कैंडल… ये सबकुछ तुम्हे यही बताने के लिए हैं कि मैं तुमसे कितना प्यार करती हूँ. I love you so much.

-आरती

अमन की आँखों में आंसू थे, उसे पता चल चुका था कि उसके लिए आरती का प्यार उसकी सफलता या असफलता पर निर्भर नहीं करता… वो तो unconditional है… आज अमन का आत्मविश्वास कई गुना बढ़ चुका था… अब वह अपनी पगार बढ़ने से कहीं ज्यादा इस बात से खुश था कि उसके पास कोई ऐसा है जो उसे किसी भी परिस्थिति में totally accept करता है.

दोस्तों, लोगों को हमारे प्रेम, विश्वास, और सपोर्ट की ज़रुरत तब सबसे ज्यादा होती है जब वे किसी बुरे दौर से गुजर रहे हों. लेकिन अक्सर हम उनके success में तो शामिल होते हैं पर failures से deal करने के लिए उन्हें अकेला छोड़ देते हैं. Let us not do that.

अगर हमारे पास एक भी ऐसा शख्स है जो हमें हर हाल में स्वीकार करता है तो हम इस दुनिया को सहजता से face कर सकते हैं और कठिन से कठिन मंज़िल को पा सकते हैं. और जानते हैं उस शख्स को पाने का सबसे आसान तरीका क्या है….वो है खुद किसी और के लिए ऐसा शख्स बनना. इसलिए लाइफ में कुछ ऐसे रिश्ते ज़रूर बनाइये जिन्हें आप totally accept और unconditionally support करने को तैयार हों और आप पायेंगे कि आपके पास भी कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हें सिर्फ और सिर्फ आपसे लेना-देना है आपकी सफलता-असफलता से नहीं! और यही एक मजबूत रिश्ते का रहस्य है!

क्या आप अपने बच्चे को सही परवरिश दे रहे हैं?

 शहर से कुछ दूरी पर बसे एक मोहल्ले में रुचिका अपने हस्बैंड के साथ रहती थी. उसके ठीक बगल में एक बुजर्ग व्यक्ति अकेले ही रहा करते थे, जिन्हें सभी “दादा जी” कह कर बुलाते थे.

एक बार मोहल्ले में एक पौधे वाला आया. उसके पास कई किस्म के खूबसूरत, हरे-भरे पौधे थे.

रुचिका और दादाजी ने बिलकुल एक तरह का पौधा खरीदा और अपनी-अपनी क्यारी में लगा दिया. रुचिका पौधे का बहुत ध्यान रखती थी. दिन में तीन बार पानी डालना, समय-समय पर खाद देना और हर तरह के कीटनाशक का प्रयोग कर वह कोशश करती की उसका पौधा ही सबसे अच्छा ढंग से बड़ा हो.

दूसरी तरफ दादा जी भी अपने पौधे का ख़याल रख रहे थे, पर रुचिका के तुलना में वे थोड़े बेपरवाह थे… दिन में बस एक या दो बार ही पानी डालते, खाद डालने और कीटनाशक के प्रयोग में भी वे ढीले थे.

समय बीता. दोनों पौधे बड़े हुए.

रुचिका का पौधा हरा-भरा और बेहद खूबसूरत था. दूसरी तरफ दादा जी का पौधा अभी भी अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में नहीं आ पाया था.
यह देखकर रुचिका मन ही मन पौधों के विषय में अपनी जानकारी और देखभाल करने की लगन को लेकर गर्व महसूस करती थी.

फिर एक रात अचानक ही मौसम बिगड़ गया. हवाएं तूफ़ान का रूप लेने लगीं…बादल गरजने लगे… और रात भर आंधी-तूफ़ान और बारिश का खेल चलता रहा.

सुबह जब मौसम शांत हुआ तो रुचिका और दादा जी लगभग एक साथ ही अपने अपने पौधों के पास पहुंचे. पर ये क्या ? रुचिका का पौधा जमीन से उखड़ चुका था, जबकि दादा जी का पौधा बस एक ओर जरा सा झुका भर था.

“ऐसा क्यों हुआ दादाजी, हम दोनों के पौधे बिलकुल एक तरह के थे, बल्कि आपसे अधिक तो मैंने अपने पौधे की देख-भाल की थी… फिर आपका पौधा प्रकृति की इस चोट को झेल कैसे गया जबकि मेरा पौधा धराशायी हो गया?”, रुचिका ने घबराहट और दुःख भरे शब्दों में प्रश्न किया.

इस पर दादाजी बोले, “देखो बेटा, तुमने पौधे को उसके ज़रुरत की हर एक चीज प्रचुरता में दी… इसलिए उसे अपनी आवश्यकताएं पूरी करने के लिए कभी खुद कुछ नहीं करना पड़ा… न उसे पानी तलाशने के लिए अपनी जड़ें जमीन में भीतर तक गाड़नी पड़ीं, ना कीट-पतंगों से बचने के लिए अपनी प्रतिरोधक क्षमता पैदा करनी पड़ी…नतीजा ये हुआ कि तुम्हारा पौदा बाहर से खूबसूरत, हरा-भरा दिखाई पड़ रहा था पर वह अन्दर से कमजोर था और इसी वजह से वह कल रात के तूफ़ान को झेल नहीं पाया और उखड़ कर एक तरफ गिर गया.

जबकि मैंने अपने पौधे की बस इतनी देख-भाल की कि वह जीवित रहे इसलिए मेरे पौधे ने खुद को ज़िंदा रखने के लिए अपनी जडें गहरी जमा लीं और अपनी प्रतिरोधक क्षमता को भी विकसित कर लिया और आसानी से प्रकृति के इस प्रहार को झेल गया.”

रुचिका अब अपनी गलती समझ चुकी थी पर अब वह पछताने के सिवा और कुछ नहीं कर सकती थी.

दोस्तों, आज कल families छोटी होने लगी हैं. अधिकतर couples 2 या सिर्फ 1 ही बच्चा कर रहे हैं. ऐसे में माता-पिता बच्चों की care करने में उन्हें इतना pamper कर दे रहे हैं कि बच्चे को खुद grow करने और challenges face करने का मौका ही नहीं मिल रहा. As a result वे emotionally और physically मजबूत बनने की जगह कमजोर बन जा रहे हैं.

बच्चों को पालना और plants की देखभाल करने में काफी similarities हैं… ऐसे ही छोड़ देने पर बच्चे और प्लांट्स दोनों बिगड़ जाते हैं और ज़रुरत से अधिक care करने पर वे कमजोर हो जाते हैं… इसलिए बतौर अभिभावक ज़रुरी है कि हम एक सही balance के साथ अपने बच्चों को पाले-पोसें और सही परवरिश दें ताकि वे उस पौधे की तरह बनें जो मुसीबतों के आने पर गिरें नहीं बल्कि अपना सीना चौड़ा कर उनका सामना कर सकें.

आज खुद से एक प्रश्न करिए –

क्या आप अपने बच्चे को सही परवरिश दे रहे हैं?

क्या आप दादा जी की तरह उन्हें ज़िन्दगी की चुनौतियों का सामना करने का अवसर दे रहे हैं या रुचिका की तरह उन्हें pamper कर के कमजोर बना रहे हैं? फैसला आपके हाथ में है… और मुझे पता है सही फैसला लेंगे!

 

न माया मिली न राम!

 किसी गाँव में दो दोस्त रहते थे. एक का नाम हीरा था और दूसरे का मोती. दोनों में गहरी दोस्ती थी और वे बचपन से ही खेलना-कूदना, पढना-लिखना हर काम साथ करते आ रहे थे.

जब वे बड़े हुए तो उनपर काम-धंधा ढूँढने का दबाव आने लगा. लोग ताने मारने लगे कि दोनों निठल्ले हैं और एक पैसा भी नही कमाते.

एक दिन दोनों ने विचार-विमर्श कर के शहर की ओर जाने का फैसला किया. अपने घर से रास्ते का खाना पीना ले कर दोनों भोर होते ही शहर की ओर चल पड़े.

शहर का रास्ता एक घने जंगल से हो कर गुजरता था. दोनों एक साथ अपनी मंजिल की ओर चले जा रहे थे. रास्ता लम्बा था सो उन्होंने एक पेड़ के नीचे विश्राम करने का फैसला किया. दोनों दोस्त विश्राम करने बैठे ही थे की इतने में एक साधु वहां पर भागता हुआ आया. साधु तेजी से हांफ रहा था और बेहद डरा हुआ था.

मोती ने साधु से उसके डरने का कारण पूछा.

साधु ने बताय कि-

आगे के रास्ते में एक डायन है और उसे हरा कर आगे बढ़ना बहुत मुश्किल है, मेरी मानो तुम दोनों यहीं से वापस लौट जाओ.

इतना कह कर साधु अपने रास्ते को लौट गया.

हीरा और मोती साधु की बातों को सुन कर असमंजस में पड़ गए. दोनों आगे जाने से डर रहे थे. दोनों के मन में घर लौटने जाने का विचार आया, लेकिन लोगों के ताने सुनने के डर से उन्होंने आगे बढ़ने का निश्चेय किया. 

आगे का रास्ता और भी घना था और वे दोनों बहुत डरे हुए भी थे.  कुछ दूर और चलने के बाद उन्हें एक बड़ा सा थैला पड़ा हुआ दिखाई दिया. दोनों दोस्त डरते हुए उस थैले के पास पहुंचे.

उसके अन्दर उन्हें कुछ चमकता हुआ नज़र आया. खोल कर देखा तो उनकी ख़ुशी का कोई ठिकाना ही न रहा. उस थैले में बहुत सारे सोने के सिक्के थे. सिक्के इतने अधिक थे कि दोनों की ज़िंदगी आसानी से पूरे ऐश-ओ-आराम से कट सकती थी. दोनों ख़ुशी से झूम रहे थे, उन्हें अपने आगे बढ़ने के फैसले पर गर्व हो रहा था.

साथ ही वे उस साधु का मजाक उड़ा रहे थे कि वह कितना मूर्ख था जो आगे जाने से डर गया.

अब दोनों दोस्तों ने आपस में धन बांटने और साथ ही भोजन करने का निश्चेय किया.

दोनों एक पेड़ के नीचे बैठ गए. हीरा ने मोती से कहा कि वह आस-पास के किसी कुएं से पानी लेकर आये, ताकि भोजन आराम से किया जा सके. मोती पानी लेने के लिए चल पड़ा.

मोती रास्ते में चलते-चलते सोच रहा था कि अगर वो सारे सिक्के उसके हो जाएं तो वो और उसका परिवार हमेशा राजा की तरह रहेगा. मोती के मन में लालच आ चुका था.

वह अपने दोस्त को जान से मर डालने की योजना बनाने लगा. पानी भरते समय उसे कुंए के पास उसे एक धारदार हथियार मिला. उसने सोचा की वो इस हथियार से अपने दोस्त को मार देगा और गाँव में कहेगा की रास्ते में डाकुओं ने उन पर हमला किया था. मोती मन ही मन अपनी योजना पर खुश हो रहा था.

वह पानी लेकर वापस पहुंचा और मौका देखते ही हीरा पर पीछे से वार कर दिया. देखते-देखते हीरा वहीं ढेर हो गया.

मोती अपना सामान और सोने के सिक्कों से भरा थैला लेकर वहां से वापस भागा.

कुछ एक घंटे चलने के बाद वह एक जगह रुका. दोपहर हो चुकी थी और उसे बड़ी जोर की भूख लग आई थी. उसने अपनी पोटली खोली और बड़े चाव से खाना-खाने लगा.

लेकिन ये क्या ? थोड़ा खाना खाते ही मोती के मुँह से खून आने आने लगा और वो तड़पने लगा. उसे

एहसास हो चुका था कि जब वह पानी लेने गया था तभी हीरा ने उसके खाने में कोई जहरीली जंगली बूटी मिला दी थी. कुछ ही देर में उसकी भी तड़प-तड़प कर मृत्यु हो गयी.

अब दोनों दोस्त मृत पड़े थे और वो थैला यानी माया रूपी डायन जस का तस पड़ा हुआ था.

जी हाँ दोस्तों उस साधु ने एकदम ठीक कहा था कि आगे डायन है. वो सिक्कों से भरा थैला उन दोनों दोस्तों के लिए डायन ही साबित हुआ. ना वो डायन रूपी थैला वहां होता न उनके मन में लालच आता और ना वे एक दूसरे की जाना लेते.

दोस्तों! यही जीवन का सच भी है. हम माया यानी धन-दौलत-सम्पदा  एकत्रित करने में इतना उलझ जाते हैं कि अपने रिश्ते-नातों तक को भुला देते हैं. माया रूपी डायन आज हर घर में बैठी है. इसी माया के चक्कर में इंसान हैवान बन बैठा है. हमें इस प्रेरक कहानी से ये सीख लेनी चाहिए की हमें कभी भी पैसे को ज़रुरत से अधिक महत्त्व नहीं देना चाहिए और अपनी दोस्ती… अपने रिश्तों के बीच में इसको कभी नहीं लाना चाहिए.

और हमारे पूर्वज भी तो कह गए हैं-

माया के चक्कर में दोनों गए, न माया मिली न राम

इसलिए हमें हमेशा माया के लोभ व धन के लालच से बचना चाहिए और ज्यादा ना सही पर कुछ समय भगवान् की अराधना में ज़रूर लगाना चाहिए.

 

 

 

चित्रकार की गलती

 किसी शहर में एक प्रसिद्द चित्रकार रहता था. देश-विदेश में उसकी चित्र प्रदर्शनी देखने हजारों लोग आते थे और उसके काम की प्रशंसा करते नहीं थकते थे.

एक बार उसने सोचा कि कहीं ऐसा तो नही कि लोग सिर्फ उसके मुंह पे उसकी तारीफ़ करते हैं और पीठ पीछे उसके काम में कमी निकालते हैं.

यही सोच कर उसने अपनी बनायी एक मशहूर पेंटिंग सुबह-सुबह शहर के एक व्यस्त चौराहे पर लगा दी और नीचे लिख दिया-

जिसे भी इस पेंटिंग में कहीं  कोई कमी नज़र आये  वह  उस जगह एक निशान लगा दे.

शाम को जब वो पेंटिंग देखने चौराहे पर गया तो उसकी आँखें फटी-फटी रह गयीं… पेंटिंग पे सैकड़ों निशान लगे हुए थे.  वह बहुत निराश हो गया और चुपचाप पेटिंग उठा कर अपने घर चला गया.

इस घटना का उसपर बहुत बुरा असर हुआ. उसने चित्रकारी करना छोड़ दिया और लोगों से मिलने-जुलने से भी कतराने लगा.

एक दिन उसके किसी दोस्ती ने उसकी निराश का कारण पूछा तब उसने उदास मन से उस दिन की घटना सुना डाली.

मित्र बोला, “एक काम करते हैं हम एक बार और तुम्हारी बनायी कोई पेटिंग उस चौराहे पर रखते हैं.”

और अगली सुबह उन्होंने चौराहे पर एक नयी पेंटिंग लगा दी. पेटिंग लगाने के बाद चित्रकार उसके नीचे फिर से वही लाइन लिखने जा रहा था कि “जिसे भी इस पेंटिंग में कहीं  कोई कमी नज़र आये  वह  उस जगह एक निशान लगा दे.

कि तभी दोस्त ने उसे रोका और कहा इस बार लिखो-

जिस किसी को भी इस पेंटिंग में कहीं भी कोई कमी दिखाई दे उसे सही कर दे.

शाम को जब दोनों दोस्त उस पेंटिंग को देखने गया तो उन्होंने  देखा कि पेंटिंग जैसी सुबह थी अभी भी बिलकुल वैसी की वैसी ही है.

दोस्त चित्रकार को देखकर मुस्कुराया और बोला, “कुछ समझे…. कोई भी मूर्ख गलतियाँ निकाल सकता है और ज्यादातर मूर्ख निकालते ही हैं…लेकिन गलतियाँ सुधारने वाले बहुत कम ही लोग होते हैं… बेकार में ऐसे लोगों की राय लेने का कोई फायदा नहीं जो सिर्फ और सिर्फ दूसरों मीन मेख निकालना चाहते हैं… उन्हें नीचा दिखाना चाहते हैं…. लेकिन उनको सुधारने के लिए न उनके पास समय है और न ज्ञान.

इसलिये गलती तुम्हारे चित्र में नहीं बल्कि गलती ऐसे लोगों से सलाह मांगने में है!”

चित्रकार अपने दोस्त की बात समझ चुका था और अब वह दुबारा अपना मनपसंद काम करने लगा… वह पेंटिंग्स बनाने लगा.

दोस्तों इस कहानी से हमें कुछ महत्त्वपूर्ण बातें सीखने को मिलती हैं-

  • हमें हर किसी से उसकी “सलाह” या “advice” नहीं लेनीचाहिए.
  • यदि हमें सलाह लेनी ही है तो अपनी फील्ड के एक्सपर्ट से ही सलाह या फीडबैक लें.
  • हमें वो इंसान बनने से बचना चाहिए जो सिर्फ गलतियाँ निकालना जानता है.
  • हमें वो इंसान बनना चाहिए जो औरों की गलती को सुधार कर उनके जीवन को सकारात्मक बना सके.

सबसे कीमती तोहफा

 रमेश एक प्राइवेट कंपनी में काम करता था. खर्चे बहुत थे और वो अक्सर पैसों की तंगी को लेकर परेशान रहता था.

 

एक दिन जब वो काम से लौटा तो उसन देखा कि एक बड़ा सा डिब्बा गिफ्ट व्रैप करके आलमारी पर रखा हुआ है.

“अरे सुनती हो, ये गिफ्ट किसके लिए रखा है…क्या ज़रुरत है किसी को इतना बड़ा गिफ्ट देने की?” रमेश ऊँची आवाज में बोला.

“पापा, ये गिफ्ट मैंने तैयाल किया है!” रमेश की 4 साल की बेटी गुड़िया ने अपनी तोतली आवाज में  कहा.

यह सुनकर रमेश और भी क्रोधित हो गया और बोला, “आज के बाद से बिना मुझसे पूछे तुम किसी को कोई गिफ्ट नहीं दोगी… चलो भागो यहाँ से.”

रमेश की डांट सुनकर गुड़िया रोते हुए कमरे से भागी.

अगले दिन जब रमेश ऑफिस के लिए निकलने वाला था कि तभी उसकी नज़र उस गिफ्ट पर पड़ी, उस पर लिखा था-

I Love You Papa.

अब रमेश अपने कल की हरकत पर शर्मिंदगी महसूस हुई.

उसने फ़ौरन डिब्बा खोला कि देखें गुड़िया ने उसे क्या दिया है. पर ये क्या डिब्बा खाली था.

अब एक बार फिर रमेश गुस्से से भर गया.

“सुनो गुड़िया…इधर आओ… ये क्या मजाक है!  क्या तुम जानती नहीं  कि जब भी हम किसी को गिफ्ट देते हे, तो अंदर कुछ होना चाहिए, किसी को खाली बॉक्स गिफ्ट में देते हैं क्या?”

नन्ही गुड़िया की आँखों में आंसू आ गए और वो रोते-रोते बोली-

पापा, ये बिलकुल खाली नहीं हैं. मेने इसमें ढेल साले किस डाले हैं. ये छब आपके लिए हैं, पापा.

अब पापा की आँख में आंसू थे. उन्होंने अपनी बेटी को बांहो में ले लिया और उससे माफ़ी मांगने लगे. एक बार फिर बाप और बेटी दोनों प्रेम के सागर में गोते लगाने लगे.

दोस्तों, प्यार ही इस ज़िन्दगी का सबसे बड़ा तोहफा है. इसकी कोई कीमत नहीं फिर भी ये सबसे कीमती है. लेकिन हम human beings materialistic life में इतने उलझे हुए रहते हैं कि प्रेम,स्नेह, वात्सल्य के महत्त्व की ओर ध्यान ही नहीं देते. चलिए इस कहानी से सीख लेते हुए हम अपने loved ones के लिए समय निकालें, उनसे प्रेम करें और उन्हें भी ये सबसे कीमती तोहफा दें.

पर मैं तो जानता हूँ ना कि वो कौन है!

 डॉक्टर की क्लीनिक पर बहुत भीड़ थी. 75 वर्षीय दादाजी अपना चेकअप कराने के लिए पहुंचे. वह बहुत जल्दबाजी में थे, उन्होंने वहां उपस्थित लोगों व स्टाफ से अनुरोध किया कि कृपया उन्हें जल्दी दिखा लेने दें क्योंकि आधे घंटे बाद उन्हें एक और हॉस्पिटल में पहुंचना है.

किसी ने अन्दर जाकर डॉक्टर से परमिशन ली और उन्हें अन्दर भेज दिया.

डॉक्टर ने मुस्कुराते हुए कहा, “आइये दादा जी!, बैठ जाइए.”

चेकअप  करते- करते डॉक्टर ने पूछा, “ क्या बात है आप इतनी जल्दी में क्यों हैं क्या मेरे बाद किसी और डॉक्टर से भी मिलना है?”

“नहीं बेटा, दरअसल मेरी पत्नी पास ही के एक हॉस्पिटल में एडमिट है और मुझे उसके साथ शाम की चाय पीने पहुंचना है.”, दादाजी ने बताया.

डॉक्टर बोला, “ क्या हुआ है उनको?”

“कुछ नहीं बेटा, बुढापा अपने साथ कई बीमारियाँ लेकर आता है, बेचारी पिछले कई सालों से से अलजाइमर डिजीज से ग्रस्त है और पिछले 2 महीने से तबियत अधिक बिगड़ने के कारण हॉस्पिटल में एडमिट है.”, दादाजी ने उत्तर दिया.

“अलजाइमर डिजीज! इसमें तो मरीज को ठीक से कुछ याद नहीं रहता”, डॉक्टर चिंता प्रकट करते हुए बोला.

“हाँ बेटा, सही कहा तुमने, वो तो अब मुझे पहचानती भी नहीं?”, दादा जी दुखी होते हुए बोले.

डॉक्टर ने आश्चर्य से पूछा, “ वो आपको पहचानती भी नहीं, फिर भी आप रोज उनके साथ चाय पीने के लिए जाते हैं?”

दादा जी एक क्षण के लिए रुके और फिर बोले-

तो क्या हुआ वो मुझे नहीं पहचानती, पर मैं तो जानता हूँ ना कि वो कौन है!

दोस्तों, सच्चा प्यार यही होता… this is what we call “TRUE LOVE”. ये unconditional होता है…इसमें ये नहीं होता कि तुम मेरे साथ ऐसा-ऐसा करोगे तभी मैं तुम्हें मानूंगा, प्रेम करूँगा… बल्कि इसमें ये होता है कि तुम मेरे साथ जैसा भी करोगे मैं तुम्हे मानना नहीं छोडूंगा…मैं तुम्हे प्रेम करना नहीं छोडूंगा.

 

असली खजाना

लम्बे समय से बीमार चल रहे दादा जी की तबियत अचानक ही बहुत अधिक बिगड़ गयी. दादी का बहुत पहले ही देहांत हो चुका था, बड़ा बेटा उनकी देखभाल करता था.

अंतिम समय जानकर उन्होंने अपने चारों बहु-बेटों को पास बुलाया. पर जिस दिन सब इकठ्ठा हुए उस दिन उनकी तबियत इतनी खराब हो गयी कि वो बोल भी नहीं पा रहे थे… फिर उन्होंने इशारे से कलम मांगी और एक कागज पर कांपते हाथों से कुछ लिखने लगे…


पर जैसे ही उन्होंने एक शब्द लिखा उनकी मौत हो गयी…

कागज पे “आम” लिखा देख सबने सोचा कि शायद वे अंतिम समय में अपना पसंदीदा फल आम खाना चाहते थे.

उनकी आखिर इच्छा जान कर उनके मृत्यु भोज में कई क्विंटल आम बांटें गए.

कुछ समय बाद भाइयों ने पुश्तैनी प्रॉपर्टी बेचने का फैसला लिया और एक बिल्डर को अच्छे दाम में सबकुछ बेच दिया.

बिल्डर ने कुछ दिन बाद जब वहां काम लगवाया. पुरानी बिल्डिंग तोड़ी जाने लगी, बागीचे के पेड़ पौधे उखाड़े जाने लगे.

और उस दिन जब आम का पेड़ उखाड़ा गया तो मजदूरों की आँखें फटी की फटी रह गयीं… पेड़ के ठीक नीचे दशकों से गड़ा एक पुराना संदूक पड़ा हुआ था.

बिल्डर ने फ़ौरन मजदूरों को पीछे किया और संदूक खोलने लगा…

संदूक में कई करोड़ मूल्य के हीरे-जवाहरात चमचमा रहे थे.

बिल्डर मानो ख़ुशी से पागल हो गया…जितने की प्रॉपर्टी नहीं थी उसकी सौ-गुना कीमत वाले खजाने पर अब उसका हक था.

भाइयों को जब इस बारे में पता चला तो उन्हें बड़ा पछतावा हुआ, कोर्ट-कचहरी के चक्कर भी लगाए पर फैसला बिल्डर के हक में गए.

चारो भाई जब एक दिन मुंह लटकाए बैठे थे तभी अचानक छोटा भाई बोला…

“अरे…. उस दिन बाबूजी ने इसलिए कागज पर आम नहीं लिखा था क्योंकि उन्हें आम खाना था…वो तो हमें इसे खजाने का पता बताना चाहते थे.”

चारों बेटे मन ही मन सोचने लगे… जीवन भर हम उस पेड़ के इर्द-गिर्द रहे, किनती बार उस पे चढ़े-उतरे, उस जमीन पर चहल कदमी की… वो खजाना तब भी वहीँ पड़ा हुआ था पर हम उसके बारे में कुछ नहीं जान पाए और अंत में वो हमारे हाथ से निकल गया.

काश बाबूजी ने पहले ही हमें उसके बारे में बता दिया होता!

दोस्तों, खजाना सिर्फ ज़मीन के नीचे नहीं छिपा होता, असली खजाना हमारे भीतर छिपा होता है. और वो हीरे-जवाहरातों से कहीं अधिक मूल्यवान होता है.

लेकिन दुनिया के ज्यादातर लोग उस खजाने को कभी पा नहीं पाते… वो कभी भी अपने maximum potential को realize नहीं कर पाते…

क्यों? क्योंकि वे beyond the obvious सोचने-करने की कोशिश ही नहीं करते.

“आम” लिख दिया मतलब आम खाना है… कुछ और दिमाग ही मत लगाओ, सोचो ही मत… जैसे ज़िन्दगी चल रही है…चलने दो… जैसे सब करते आये हैं वैसे ही करते जाओ… रिस्क मत लो… पैदा हो…पढो-लिखो…नौकरी-धंधा करो…परिवार बनाओ…दुनिया से चले जाओ.

अरबों लोग यही कर रहे हैं…हमने भी कर लिया तो क्या?

अरे! जागो भाई! अपने खजाने को बर्बाद मत होने दो…कुरेदों अपने अन्दर की परतों को … पता करो उस महान चीज के बारे जिसे तुम करने के लिए पैदा हुए हो… अपनी uniqueness, अपनी आइडेंटिटी को भीड़ के पैरों तले कुचलने मत दो.

और तभी आप असली खजाने के हक़दार हो पाओगे!

शनिवार, 4 दिसंबर 2021

तीन गेंदें

 संदीप परेशान होकर अपने गुरु के पास जाता है और कहता है-

गुरुजी आपने हमेशा समझाया है कि मेहनत और लगन से काम करते रहो सफलता मिलती रहेगी. मैं मेहनत और लगन से काम कर रहा हूं मुझे सफलता भी मिल रही है लेकिन उस सफलता के साथ जो खुशी जुड़ी होती है… जो सुकून जुड़ा होता है वह मुझे नहीं मिल रहा. मेरा बेटा एक बड़े स्कूल में पढ़ रहा है , मैं एक महंगा घर भी खरीद चुका हूं आपके बताए मेहनत के रास्ते पर चल रहा हूं, लेकिन खुश नहीं हूं! गुरुजी में खुश कैसे रहू कृपया मेरी मदद कीजिए.

गुरुजी मुस्कुराते हुए अंदर कमरे में गए और अपने हाथ में तीन गेंद लेकर आए जिसमें से-

  • एक कांच की गेंद थी
  • एक रबड़ की गेंद थी
  • एक चीनी मिट्टी की

गुरुजी ने उन गेंदों को संदीप के हाथों में दिया और कहा, “तुम इन गेंदों को लगातार एक के बाद एक हवा में उछालते रहो और किसी भी समय कम से कम 1 गेंद हवा में जरूर होनी चाहिए.”

संदीप थोड़ा हैरान तो हुआ लेकिन गुरुजी की बात मानता चला गया. उसने चुपचाप तीनों गेंद उठायीं और एक के बाद एक हवा में उछालने लगा.

कुछ देर तक तो वह बैलेंस बना पाया लेकिन जल्द ही उसका संतुलन बिगड़ने लगा. उसने जैसे-तैसे कांच और रबड़ की गेंद तो पकड़ ली पर अब वह चीनी मिट्टी की गेंद पकड़ता तो कोई न कोई- गेंद नीचे गिर जाती.

अब ऐसे में उसने तेजी से निर्णय लिया और रबड़ की गेंद को हाथ से छोड़ कर चीनी मिट्टी वाली गेंद  पकड़ ली, क्योंकि वह उन तीनो बालों में सबसे कीमती थी और रबड़ की गेंद नीचे गिर कर भी टूटती नहीं.

मतलब रबड़ की गेंद फेंकते हुए उसने कांच की और चीनी मिट्टी की गेंद को बचा लिया. पर फिर भी वह निराश था कि वह गुरुजी का दिया काम ढंग से नहीं कर पाया.

गेंद गिरते ही वह गुरुजी की ओर पलटा, उसने देखा कि गुरुजी मुस्कुरा रहे .

गुरुजी उसके पास आए और उससे पूछा, “बेटा बताओ तुमने रबड़ की गेंद को क्यों गिरने दिया? कांच की या चीनी मिट्टी वाली गेंद को क्यों नहीं?

तब संदीप ने गुरुजी से बोला, “गुरुजी चीनी मिट्टी वॉली गेंद सबसे ज्यादा कीमती थी इसलिए मैंने उसको पकड़ने की सोची और अगर कांच की या चीनी मिट्टी की बोल नीचे गिर जाती तो वो टूट जाती… इसीलिए मैंने इन दोनों को नहीं छोड़ा, बल्कि रबड़ की गेंद छोड़ दी क्योंकि रबड़ की गेंद गिरने पर कोई नुकसान नहीं होता.

गुरुजी उसका जवाब सुनते हुए फिर मुस्कुराए और बोले बेटा तुमने अपनी समस्या का समाधान खुद ही ढूंढ लिया यह तीनों गेंदों तुम्हारे जीवन की प्राथमिकताओं की तरह हैं.

  • यह चीनी मिट्टी वाली गेंद तुम, तुम्हारे परिवार, तुम्हारी सोच और तुम्हारी भावनाओं की तरह हैं.
  • यह कांच का बाल तुम्हारा काम, तुम्हारी नौकरी तुम्हारे पैसे तुम्हारे सुख सुविधाओं के साधन हैं.
  • और यह रबड़ की गेंद तुम्हारी उन चीजों की तरह है जो अगर तुम्हारी जिंदगी में ना भी हो तब भी तुम आराम से जी सकते हो. जैसे कि तुम्हारा महंगा मोबाइल महंगी कार या कोई महंगी घड़ी या फिर महंगे शौक.

तुमने अपनी जिंदगी में कांच की गेंद और रबड़ की गेंद दोनों को महत्व दिया. तुमने एक से एक महंगी चीजें इकट्ठा कर लीं, भौतिकता की चकाचौंध में तुम इतना खो गए कि अपने परिवार की तरफ, अपने रिश्तों की तरफ, यहाँ तक कि खुद अपनी भावनाओं की तरफ भी ध्यान नहीं दिया. इसीलिए आज तुम खुश नहीं हो.

मेहनत करते रहो आगे बढ़ते रहो लेकिन अपनी प्राथमिकताओं को स्पष्ठ रखो. जब भी मन परेशान हो जब भी किसी चीज को बैलेंस ना कर पाओ तो और मजबूरन कोई न कोई गेंद छोडनी पड़े तो रबड़ की गेंद छोड़ दो, खुशियां नहीं रुकेंगी.

पर आज तुम ही नहीं संदीप ज्यादातर लोग  रबड़ की गेंद को इतना मजबूती से पकड़ लेना चाहते  हैं कि चीनी मिट्टी और कांच की गेंद उनके हाथ से छूट ही जाती है.

काम के पीछे, पैसों के पीछे इतना भी मत भागो कि खुशियां पीछे छूट जाएं.

दोस्तों, आप भी अपने जीवन की प्राथमिकताओं पर ध्यान देते हुए जीवन के लक्ष्य हासिल करें और इस पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा लोगों से  शेयर कर के ये ज़रूरी सन्देश औरों तक भी पहुंचाएं.

 

चिड़ियाघर का ऊंट

एक ऊंटनी और उसका बच्चा एक पेड़ के नीचे आराम कर रहे थे.

बच्चे ने पूछा, “माँ, हम ऊँटों का ये कूबड़ क्यों निकला रहता है?”

“बेटा हम लोग रेगिस्तान के जानवर हैं, ऐसी जगहों पर खाना-पानी कम होता है, इसलिए भगवान् ने हमें अधिक से अधिक फैट स्टोर करने के लिए ये कूबड़ दिया है…जब भी हमें खाना या पानी नहीं मिलता हम इसमें मौजूद फैट का इस्तेमाल कर खुद को जिंदा रख सकते हैं.” ऊंटनी ने उत्तर दिया.

बच्चा कुछ देर सोचता रहा फिर बोला, ” अच्छा, हमारे पैर लम्बे और पंजे गोल क्यों हैं?”

“इस तरह का आकार हम ऊँटों को रेत में आराम से लम्बी दूरी तय करने में मदद करता है,इसलिए.” माँ ने समझाया.

बच्चा फिर कुछ देर सोचता रहा और बोला, “अच्छा माँ ये बताओ कि हमारी पलकें इतनी घनी और लम्बी क्यों होती हैं?”

“ताकि जब तेज हवाओं के कारण रेत उड़े तो वो हमारी आँखों के अन्दर ना जा सके.” माँ मुस्कुराते हुए बोली.

बच्चा थोड़ी देर चुप रहा फिर बोला,” अच्छा तो ये कूबड़ फैट स्टोर करने के लिए है… लम्बे पैर रेगिस्तान में तेजी से बिना थके चलने के लिए हैं… पलकें रेत से बचाने के लिए हैं…लेकिन तब हम इस चिड़ियाघर में क्या कर रहे हैं?”

दोस्तों, यही सवाल हमें खुद से पूछना चाहिए. ईश्वर ने हर एक इंसान को unique बनाया है. हर व्यक्ति में इतना potential है कि वह कुछ बड़ा… कुछ महान कर सकता है. लेकिन ज्यादातर लोग चिड़ियाघर का ऊंट बन जाते हैं… अपने अन्दर मौजूद अपार काबिलियत का प्रयोग ही नहीं करते… बेजुबान जानवर तो मजबूर है… लेकिन एक इंसान होने के नाते हमें मजबूर नहीं मजबूत बनाना चाहिए और अपने अन्दर के टैलेंट को पहचान कर अपनी बेस्ट लाइफ जीने की हर कोशिश करनी चाहिए.

बुढ़िया का यकीन!

 एक बार कैंसर के एक बहुत मशहूर डॉक्टर डॉ. मजीद को नयी दिल्ली एक अवार्ड सेरेमनी में लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड देने के लिए बुलाया जाता है.

इस आवर्ड को लेकर डॉ. मजीद ही नहीं पूरा लखनऊ शहर बहुत उत्साहित था क्योंकि डॉ. साहब न सिर्फ एक काबिल डॉक्टर थे बल्कि एक बहुत नेक दिल इंसान भी थे.

अवार्ड सेरेमनी वाले दिन वो सुबह फ्लाइट पकड़ने के लिए एअरपोर्ट पहुँचते हैं. पर कुछ टेक्निकल खराबी आ जाने के कारण वो फ्लाइट कैंसिल हो जाती है.. और दुर्भ्ग्यवाश कोई नेक्स्ट फ्लाइट भी मौजूद नहीं होती है.

डॉ. मजीद सोचते हैं चलो कोई बात नहीं सेरेमनी तो शाम को है… और लखनऊ से दिल्ली 6-7 घंटे का ही रास्ता है तो चलो टैक्सी से निकल लेते हैं.

वे जल्द ही एक टैक्सी हायर करके दिल्ली की तरफ बढ़ने लगते हैं…आधे रास्ते तक तो सब ठीक रहता है लेकिन अचानक ही ड्राईवर कहता — “साहब! सामने देखिये… बहुत बड़ा जाम लगा हुआ है… अगर हम इस रास्ते से जाते हैं तो पहुँचने में रात लगा जायेगी! अगर आप कहें तो कोई दूसरा रास्ता ट्राई करूँ…”

डॉ मजीद पहले तो ड्राईवर को मना कर देते हैं पर जब 10-15 मिनट बाद भी गाड़ियाँ टस से मस नहीं होती हैं तो वे ड्राईवर से दूसरा रास्ता ट्राई करने को कहते हैं.

ड्राईवर अपने अंदाजे पर गाड़ी सर्विस लेन पर ले लेता है और जो पहले कट मिलता है उससे बायीं तरफ मुड़ जाता है. उबड़-खाबड़ रास्तों पर घंटे भर चलने के बाद भी कोई पक्की सड़क या रास्ता नहीं दिखाई देता.

डॉ. मजीद बिलकुल मायूस हो जाते हैं तभी उनको दूर एक झोपड़ी दिखाई देती है.

वो देखिये ड्राईवर साहब उधर एक झोपड़ी है, चलिए वहीं चल कर पता पूछते हैं.

ड्राईवर तुरंत गाड़ी रोकता है और वे दोनों उतर कर उस झोपड़ी के पास पहुँचते हैं.

“अरे कोई है!”, ड्राईवर जोर से पुकारता है.

झोपड़ी से एक बूढी सी औरत बाहर निकलती है.

“क्या बात है बेटा, क्यों पुकार रहे हो?”

“माता जी हम लोगों को दिल्ली जाना है पर हम रास्ता भटक कर इधर आ गए हैं क्या आप हमारी मदद कर सकती हैं?”, ड्राईवर वृद्धा से निवेदन करता है.

बिलकुल मदद करुँगी बेटा पहले आप लोग अन्दर आकर पानी तो पी लो.

वह उन दोनों के लिए पानी और कुछ गुड़ लेकर आती है.

डॉ. मजीद उस गरीब की आवभगत से खुश हो जाते हैं और पूछते हैं – “आप यहाँ अकेली रहती हैं क्या?”

नहीं-नहीं, मेरा पोता भी मेरे साथ रहता है. बिचारे के माता-पिता बचपन में ही मर गए थे तबसे मैं ही इसका ख़याल रखती हूँ… देखिये न बेचारा बिस्तर में बीमार पड़ा है…शायद ये भी अब कुछ दिनों बाद मुझे छोड़ कर चला जाएगा…

और इतना कहते-कहते उनकी आँखों से आंसूं निकलने लगे.

डॉ. मजीद आगे बढ़ते हैं और वृद्धा को ढांढस बंधाते हुए कहते हैं, कुछ नहीं होगा इसे बताइये क्या हुआ है इस नन्हे बालक को.

इस अभागे को कैंसर है साहब…लोग कहते हैं इसका इलाज सिर्फ लखनऊ के डॉ. मजीद के पास है… बहुत कोशिश की, कई बार चक्कर लगाए पर डॉ. साहब से मुलाक़ात नहीं हो पायी…अब तो सब कुछ कृष्णा पर छोड़ दिया है…अगर मैंने सच्चे मन से उसे माना होगा तो एक दिन वो मेरी मदद ज़रूर करेगा.

इतना सुनते ही डॉ. मजीद का गला रुंध गया…आँखों में नमी आ गयी…वे पूरे दिन के घटनाक्रम को सोचने लगे कि कैसे बुढ़िया का यकीन हकीकत बन गया…कैसे उस ऊपर वाले ने अपने बंदे के उन्हें यहाँ भेजा!

गहरी सांस लेते हुए वे बोले, “मैं ही हूँ डॉ. मजीद आपके कृष्णा ने ही मुझे यहाँ भेजा है. चलिए मेरे साथ हम आज से ही इस बालक का इलाज शुरू करेंगे!”

फिर वे ड्राईवर से बोले, “ड्राईवर गाडी वापस ले लो!”

“ल..ल..लेकिन वो आपका लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड!”, ड्राईवर अचरज से बोला.

लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड कभी भी किसी की लाइफ से ज़रूरी नहीं हो सकता है…

जैसा मैं कहता हूँ वैसा करो” और सभी गाड़ी में बैठ कर लखनऊ वापस लौट गए.

आज लोगों की नज़र में भले डॉ. मजीद ने एक जीवन बचाने के लिए जीवन भर की मेहनत का अवार्ड छोड़ दिया था..पर ऐसा करके उन्हें अन्दर से जो ख़ुशी और संतोष मिला था वो ऐसे हज़ारों अवार्ड से भी बड़ा था.

दोस्तों, कहते हैं ऊपर वाले के घर देर है अंधेर नहीं. यदि आप सच्चे दिल से किसी चीज में यकीन करते हैं और उसके लिए हर संभव प्रयास करते हैं तो एक न एक दिन वो आपको मिल ही जाती है.

इसलिए उस बूढी औरत की तरह दृढ विश्वास के साथ जो कुछ भी आप पाना चाहते हैं उसके लिए कर्म करिए…लेकिन फल कब कैसे कहाँ मिलेगा वो भगवान् पर छोड़ दीजिये. अगर आप सच्चे हैं तो आपके भी “डॉ. मजीद” एक न एक दिन आपको ज़रूर मिल जायेंगे.

कुंदन काका की कुल्हाड़ी

कुंदन काका एक फैक्ट्री में पेड़ काटने का काम करते थे. फैक्ट्री मालिक उनके काम से बहुत खुश रहता और हर एक नए मजदूर को उनकी तरह कुल्हाड़ी चलाने को कहता.  यही कारण था कि ज्यादातर मजदूर उनसे जलते थे.एक दिन जब मालिक काका के काम की तारीफ कर रहे थे तभी एक नौजवान हट्टा-कट्टा मजदूर सामने आया और बोला, “मालिक! आप हमेशा इन्ही की तारीफ़ करते हैं, जबकि मेहनत तो हम सब करते हैं… बल्कि काका तो बीच-बीच में आराम भी करने चले जाते हैं, लेकिन हम लोग तो लगातार कड़ी मेहनत करके पेड़ काटते हैं.”

इस पर मालिक बोले, “भाई! मुझे इससे मतलब नहीं है कि कौन कितना आराम करता है, कितना काम करता है, मुझे तो बस इससे मतलब है कि दिन के अंत में किसने सबसे अधिक पेड़ काटे….और इस मामले में काका आप सबसे 2-3 पेड़ आगे ही रहते हैं…जबकि उनकि उम्र भी हो चली है.”

मजदूर को ये बात अच्छी नहीं लगी.

वह बोला-

अगर ऐसा है तो क्यों न कल पेड़ काटने की प्रतियोगिता हो जाए. कल दिन भर में जो सबसे अधिक पेड़ काटेगा वही विजेता बनेगा.

मालिक तैयार हो गए.

अगले दिन प्रतियोगिता शुरू हुई. मजदूर बाकी दिनों की तुलना में इस दिन अधिक जोश में थे और जल्दी-जल्दी हाथ चला रहे थे.

लेकिन कुंदन काका को तो मानो कोई जल्दी न हो. वे रोज की तरह आज भी पेड़ काटने में जुट गए.

सबने देखा कि शुरू के आधा दिन बीतने तक काका ने 4-5 ही पेड़ काटे थे जबकि और लोग 6-7 पेड़ काट चुके थे. लगा कि आज काका हार जायेंगे.
ऊपर से रोज की तरह वे अपने समय पर एक कमरे में चले गए जहाँ वो रोज आराम करने जाया करते थे.

सबने सोचा कि आज काका प्रतियोगिता हार जायेंगे.

बाकी मजदूर पेड़ काटते रहे, काका कुछ देर बाद अपने कंधे पर कुल्हाड़ी टाँगे लौटे और वापस अपने काम में जुट गए.

तय समय पर प्रतियोगिता ख़त्म हुई.

अब मालिक ने पेड़ों की गिनती शुरू की.

बाकी मजदूर तो कुछ ख़ास नहीं कर पाए थे लेकिन जब मालिक ने उस नौजवान मजदूर के पेड़ों की गिनती शुरू की तो सब बड़े ध्यान से सुनने लगे…

1..2…3…4…5…6..7…8…9..10…और ये 11!

सब ताली बजाने लगे क्योंकि बाकी मजदूरों में से कोई 10 पेड़ भी नहीं काट पाया था.

अब बस काका के काटे पेड़ों की गिनती होनी बाकी थी…

मालिक ने  गिनती शुरू कि…1..2..3..4..5..6..7..8..9..10 और ये 11 और आखिरी में ये बारहवां पेड़….मालिक ने ख़ुशी से ऐलान किया…

कुंदन काका प्रतियोगिता जीत चुके थे…उन्हें 1000 रुपये इनाम में दिए गए…तभी उस हारे हुए मजदूर ने पूछा, “काका, मैं अपनी हार मानता हूँ..लेकिन कृपया ये तो बताइये कि आपकी शारीरिक ताकत भी कम है और ऊपर से आप काम के बीच आधे घंटे विश्राम भी करते हैं, फिर भी आप सबसे अधिक पेड़ कैसे काट लेते हैं?”

इस पर काका बोले-

बेटा बड़ा सीधा सा कारण है इसका जब मैं आधे दिन काम करके आधे घंटे विश्राम करने जाता हूँ तो उस दौरान मैं अपनी कुल्हाड़ी की धार तेज कर लेता हूँ, जिससे बाकी समय में मैं कम मेहनत के साथ तुम लोगों से अधिक पेड़ काट पाता हूँ.

सभी मजदूर आश्चर्य में थे कि सिर्फ थोड़ी देर धार तेज करने से कितना फर्क पड़ जाता है.

दोस्तों, आप जिस field में भी हों…. आपकी skills आपकी कुल्हाड़ी  है जिससे आप अपने पेड़ काटते हैं… यानी अपना काम पूरा करते हैं…. शुरू में आपकी कुल्हाड़ी जितनी भी तेज हो…समय के साथ उसकी धार मंद पड़ती जाती है…

उदाहरण के लिए- भले ही आप computer science के topper रहे हों…लेकिन अगर आप नयी technologies, नयी languages नहीं सीखेंगे तो कुछ ही सालों में आप outdated हो जायेंगे आपकी आपकी धार मंद पड़ जायेगी.

इसीलिए हर एक individual को कुंदन काका की तरह समय-समय पर अपनी धार तेज करनी चाहिए…अपने industry से जुड़ी नयी बातों को सीखना चाहिए, नयी skills को acquire करना चाहिए और तभी सैकड़ों-हज़ारों लोगों के बीच अपनी अलग पहचान बना पायेंगे, आप अपनी field के winner बन पायेंगे.

तो बताइये आपकी priority list में कौन सी skill है जिसे आप sharp करना चाहेंगे?

लॉरेंस लेम्यूक्स: एक नाविक की सच्ची कहानी

मित्रो! हम सबके कुछ सपने होते हैं जिन्हें साकार करने के लिए हम कोई कसर बाकी नहीं रख छोड़ते। हम जैसे-जैसे अपने लक्ष्य को पाने के लिए आगे बढ़ते हैं हमारे प्रयास और अधिक तेज़ हो जाते हैं।

लक्ष्य के अत्यधिक निकट पहुंचने पर हमें अपने लक्ष्य के अतिरिक्त और कुछ भी दिखलाई नहीं पड़ता। यह स्वाभाविक ही है। सफलता का
मूल मंत्र भी यही है। ओलंपिक खेलों को ही लीजिए। दशकों तक कठिन परिश्रम करने के बाद ही कोई खिलाड़ी पदक हासिल करने के लिए आगे आ पाता है।

वर्ष 1988 में सियोल में आयोजित ओलंपिक मुकाबलों में नौकायन की एकल प्रतिस्पर्धा में भाग लेने के लिए कनाडा के लॉरेंस लेम्यूक्स एक दशक से भी अधिक समय से कठोर प्रशिक्षण ले रहे थे। उनका सपना साकार होने में बस थोड़ा सा ही समय शेष रह गया था।

लॉरेंस लेम्यूक्स के गोल्ड मेडल जीतने की प्रबल संभावना थी। वह तेजी से अपने लक्ष्य कि ओर बढ़ रहे थे और दूसरी पोजीशन पर बने हुए थे; अब उनका कोई न कोई पदक जीतना पक्का था।

लेकिन तभी उन्होंने देखा कि एक दूसरी प्रतिस्पर्धा के नाविकों की नाव बीच समुद्र में उलटी पड़ी है। एक नाविक किसी तरह नाव से लटका हुआ था जबकि दूसरा समुद्र में बह रहा था। दोनों बुरी तरह से घायल थे।

लॉरेंस ने अनुमान लगाया कि सुरक्षा नौका अथवा बचाव दल के आने में देर लगेगी और यदि तत्क्षण सहायता नहीं मिली तो इनका बचना असंभव होगा।

अब उनके सामने दो विकल्प थे:

  • पहला विकल्प था इस दुर्घटनाग्रस्त नाव के चालकों को नज़रंदाज़ करके अपना पूरा ध्यान केवल अपने लक्ष्य को पाने के लिए अपनी नौका और रेस पर केंद्रित करना
  • और दूसरा विकल्प था दुर्घटनाग्रस्त नाव के चालकों की मदद करना।

लॉरेंस लेम्यूक्स ने बिना किसी हिचकिचाहट के फ़ौरन अपनी नाव उस दिशा में मोड़ दी जिधर उलटी हुई दुर्घटनाग्रस्त नाव समुद्र की विकराल लहरों में हिचकोले खा रही थी। लेम्यूक्स ने बिना देर किए दोनों घायल नाविकों को एक एक करके अपनी नाव में खींच लिया और तब तक वहीं इंतज़ार किया जब तक कि कोरिया की नौसेना आकर उन्हें सुरक्षित निकाल नहीं ले गई।

प्रश्न उठता है कि लॉरेंस लेम्यूक्स ने अपने जीवन की एकमात्र महान उपलब्धि को अपने हाथ से यूँ ही क्यों फिसल जाने दिया?

वास्तव में लॉरेंस लेम्यूक्स के जीवन मूल्य इस तथ्य पर निर्भर नहीं थे कि विजेता होने के लिए किसी भी कीमत पर ओलंपिक मेडल प्राप्त करना ही एकमात्र विकल्प है।

लॉरेंस लेम्यूक्स को प्रतिस्पर्धा में तो कोई पदक नहीं मिल सका लेकिन अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक कमेटी द्वारा लॉरेंस लेम्यूक्स को उनके साहस, आत्म-त्याग और खेल भावना के लिए पियरे द कूबर्तिन पदक प्रदान किया जो अत्यंत सम्मान का सूचक है।

हमारे जीवन में भौतिक लक्ष्य भी हों और उन्हें पाने के लिए हम सदैव प्रयासरत रहें लेकिन जीवन का एकमात्र लक्ष्य भौतिक उपलब्धियाँ ही न हों। करुणा के वशीभूत होकर जब हम हर हाल में दूसरों की मदद के लिए प्रस्तुत हो जाते हैं तभी हम वास्तविक विजेता बन पाते हैं। लॉरेंस लेम्यूक्स की करुणा की भावना व वास्तविक मदद ने उसे अपने देश के लोगों के दिलों का ही नहीं दुनिया के लोगों के दिलों का सम्राट बना दिया।

धन्यवाद

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2021

स्वामी विवेकानंद और महान जर्मन दार्शनिक ड्यूसेन की भेंट

 स्वामी विवेकानंद का जीवन अनेक प्रेरणादायक स्मरणों से भरा पड़ा है। जो लोग मनुष्य की क्षमता को एक सीमित नजरिये से देखते हैं उनके लिए तो विवेकानंद के जीवन को पढ़ना और समझना अत्यंत आवश्यक है। स्वामी विवेकानंद के जीवन की ऐसी ही एक महत्वपूर्ण घटना जर्मनी में घटी जब वे जर्मनी के महान दार्शनिक और विद्वान पॉल जैकब ड्यूसेन के मेहमान थे।

यह पहली बार था जब ड्यूसेन (Paul Jakob Deussen- German Indologist and professor of Philosophy at University of Kiel) को किसी हिन्दू योगी की एकाग्रता, बोध क्षमता और संयम की शक्ति का परिचय हुआ था। बात उस वक़्त की है जब स्वामी विवेकानंद जर्मनी गए थे। अपने प्रवास के दौरान वे पॉल ड्यूसेन नाम के अत्यंत प्रभावशाली दार्शनिक और विद्वान के घर मेहमान थे।

स्वामी विवेकानंद पॉल ड्यूसेन के अध्ययन कक्ष में बैठे हुए थे और दोनों में कुछ बातचीत हो रही थी। वहीं टेबल पर जर्मन भाषा में लिखी हुई एक किताब पड़ी हुई थी जो संगीत के बारे में थी। इस किताब के बारे में ड्यूसेन ने विवेकानंद से काफी तारीफ़ें की थीं।

स्वामीजी ने ड्यूसेन से वह किताब केवल एक घंटे के लिए देने के लिए कहा ताकि वे इसे पढ़ सकें। लेकिन विवेकनद की इस बात पर उस दार्शनिक को बहुत आश्चर्य हुआ। उनके आश्चर्य का कारण यह था कि एक तो वह किताब जर्मन भाषा में थी जो स्वामी विवेकानंद जानते नहीं थे। दूसरे वह किताब इतनी मोटी थी कि उसे पढ़ने में कई हफ्तों का समय चाहिए था।

पॉल ड्यूसेन को विवेकानंद की इस बात का बुरा लगा क्योंकि वो खुद इस किताब को कई दिनों से पढ़ रहे थे और अभी आधा भी नहीं पढ़ पाये थे। उन्होने विवेकानंद से कहा-

“क्या केवल एक घंटे में आप इस किताब को पूरा पढ़ लेंगे?” “मैं इस को अभी तक सही से समझ नहीं पा रहा हूँ जबकि मुझे इसे पढ़ते हुए कई हफ्ते बीत चुके हैं। यह बहुत ही उच्च स्तर की किताब है और इसे समझना बहुत कठिन है।”

ड्यूसेन की इन बातों पर स्वामीजी ने उनसे कहा कि “ मैं विवेकानंद हूँ पॉल ड्यूसेन नहीं।“ इसके बाद पॉल ने वह पुस्तक देना स्वीकार कर लिया।

“स्वामी विवेकानंद ने बिना खोले ही किताब को पूरा याद कर लिया”

उस पुस्तक को स्वामी विवेकानंद ने कुछ देर तक अपनी दोनों हथेलियों के बीच दबा कर रखा और फिर पॉल ड्यूसेन के पास लौट आए। विवेकानन्द ने जर्मन दार्शनिक से कहा कि “इस किताब में कुछ खास नहीं है।”

फिर क्या था! उस महाशय के आश्चर्य का ठीकाना न रहा। उन्हे लगा कि विवेकानंद या तो झूठ बोल रहे हैं या उन्हे अपने ज्ञान का घमंड हो गया है। उन्हे यकीन नहीं हुआ कि एक घंटे में ही विवेकानंद उस पुस्तक के बारे में अपनी राय कैसे दे सकते हैं। और वो भी तब जब उन्हे जर्मन भाषा आती भी नहीं है।

अब जर्मन दार्शनिक ने विवेकानंद कि परीक्षा लेने के लिए एक एक कर के स्वामी विवेकानंद से उस किताब के अलग-अलग पन्नों में से पुछना शुरू किया। किन्तु पॉल ड्यूसेन के जीवन का सबसे बड़ा आश्चर्य हुआ जब विवेकानंद ने न केवल उन सभी पन्नों की जानकारियों के बारे में सही-सही बता दिया बल्कि उससे संबन्धित अलग-अलग विचारों को भी उनके सामने रख दिया। विवेकानंद की मानसिक शक्ति ने उस जर्मन दार्शनिक को अंदर से झकझोर दिया।

वे पूछ उठे “ यह कैसे संभव है?” इस पर विवेकानंद ने उत्तर दिया-

इसीलिए लोग मुझे स्वामी विवेकानंद कहते हैं।

उन्होने उस पॉल ड्यूसेन को ब्रह्मचर्य, त्याग और संयम के पालन से मिलने वाली शक्ति के बारे में बताया और कहा कि यदि मनुष्य एक संयमित जीवन जिये तो उसके मन की मेधा, स्मरण और अन्य शक्तियाँ जागृत हो सकती हैं। बाद में पॉल ड्यूसेन ने सनातन संस्कृति अपना कर अपना नाम देव-सेन रख लिया था।

आजकल दिन-प्रतिदिन नई पीढ़ी और युवावर्ग जाने-अनजाने में विदेशी रहन सहन और पाश्चात विचारों को अंधाधुंध अपनाती जा रही है। इतना ही नहीं उन्हे ऐसा करने में प्रतिष्ठा नजर आती है। भले ही वो रहन-सहन हमारे शरीर और मानसिक स्वस्थ्य के लिए हानिकारक ही क्यों न हो।

हमारी युवा पीढ़ी इस बात को भूल सी गयी है कि भारत की संस्कृति, परंपरा और अध्यात्म में जीवन के ऐसे बहुमूल्य अनुभव छुपे हैं जो किसी अन्य देश अथवा संस्कृति के पास नहीं हैं। मन की एकाग्रता, संयम, और त्याग से प्राप्त होने वाली उपलब्धियों के विषय में उनकी कोई इच्छा नहीं है।

किन्तु बार-बार हमारे देश के महान दार्शनिकों और योगियों के ज्ञान और श्रेष्ठता से पश्चिमी देशों के लोग अत्यंत प्रभावित हुए हैं और उन्हे भी यह मानना पड़ा है कि भारतीय जीवन शैली और वैदिक ज्ञान श्रेष्ठ है।

स्वामी विवेकानंद का जीवन हमें निर्भीक, साहसी, संयमी और परिश्रमी बनने की शिक्षा देता है। एक ओर वेदान्त, ब्रह्मसूत्र और गीता जैसे ग्रंथ ज्ञान-विज्ञान के उच्चतम अनुभवों की शिक्षा देते हैं तो दूसरी ओर हमारे अन्य ग्रंथ दैनिक जीवन को मर्यादित और अनुशासित जीने की सलाह देते हैं।

ईशोपनिषद में भी कहा गया है:

ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।

अर्थात: इस ब्रह्मांड के भीतर की प्रत्येक जड़ अथवा चेतन वस्तु भगवान् द्वारा नियंत्रित है और उन्हीं की संपत्ति है । अतएव मनुष्य को चाहिये कि अपने लिए केवल उन्हीं वस्तुओं को स्वीकार करे जो उसके लिए आवश्यक हैं, और जो उसके भाग के रूप में नियत कर दी गयी हैं । मनुष्य को यह भलीभांति जानते हुए कि अन्य वस्तुएं किसकी हैं, उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहिए।